Mind मन को कैसे जाना जा सकता है? -ओशो के पाँच सूत्र
ओशो साठ के दशक में दो प्रवचनों में अपना पूरा संदेश देने के साथ दो ध्यान के प्रयोग किया करते थे। उसी शृंखला में 3 और 4 सितंबर 1965 को पुणे में दिए दो प्रवचनों को सार में यहाँ प्रस्तुत किया है।
ये सूत्र हमारे जीवन में अमृत की वर्षा कर सकते हैं, बशर्ते हम इनमें बताए सुझावों को अपने जीवन में उतार सकें। मेरे जीवन में आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत विवेकानंद की ‘मनुष्य का मन’ जैसी किताब को पढ़ने से हुई। फिर तो अपनी पहली कमाई से मैंने विवेकानंद का १० वॉल्यूम पूरा सेट ख़रीद लिया। फिर ६ दिसंबर के दंगों में बॉम्बे में पच दिन घर में रहना पड़ा तो काफ़ी कुछ पढ़ भी लिया। उस समय तो कुछ ही समझ में आया। और बाक़ी अब जाकर समझा, लेकिन यह ज़रूर समझ में आया कि पढ़ना और पढ़ते रहना सदा से कारगर उपाय रहा है।
पहला प्रवचन, 03 सितंबर 1965, पुणे, सत्य का दर्शन (रेफ :अमृत वर्षा)
मन
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक बड़ी राजधानी में राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई थी और बढ़ती ही जा रही थी। जो भी आदमी आया था, वह ठहर गया था और वापस नहीं लौटा था। मैं भी भटकते हुए उस राजधानी में पहुंच गया था। और मैं भी उस भीड़ में खड़ा हो गया। कुछ बड़ी अजीब घटना उस दिन घट गई थी। इसलिए सारे नगर से लोग उसी महल की तरफ भागे हुए आ रहे थे। ऐसी तो कोई बड़ी अजीब बात न थी। सुबह ही एक भिखारी ने आकर उस द्वार पर भिक्षा मांगी थी। रोज ही सुबह द्वार पर भिखारी भिक्षा मांगते हैं, अभी वैसी दुनिया तो नहीं आ पाई जब भिखारी नहीं होंगे। इसलिए कोई बहुत अजीब बात न थी। लेकिन भिखारी ने न केवल भिक्षा मांगी, अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया, बल्कि उसने एक शर्त भी रखी। भिखारी कोई शर्त रखे, यह आश्चर्य की बात थी। देने वाला शर्त रखे, यह तो ठीक है। लेने वाला भी शर्त रखे, यह जरूर आश्चर्य की बात थी। और शर्त भी बड़ी अनूठी थी।
देखने में तो बहुत सरल बात मालूम पड़ी थी। और राजा उस शर्त के लिए राजी हो गया था। लेकिन पूरा करना बहुत कठिन हो रहा था।
उस भिखारी ने कहा था कि मैं एक ही शर्त पर भिक्षा लूंगा, और वह शर्त यह है कि मेरा भिक्षा पात्र पूरा भर दिया जाए। मैं अधूरा पात्र लेकर नहीं लौटूंगा। राजा के अहंकार को हंसी आ गई थी। और राजा ने कहा था तुम पागल हो? शायद तुम्हें पता नहीं तुम किसके द्वार पर भिक्षा मांग रहे हो? अगर तुम खुद अधूरा पात्र लेकर लौटना चाहते तो भी मैं तुम्हें अधूरा पात्र भरा हुआ लौटने न देता। शर्त रखने की कोई बात नहीं है। और उसने अपने वजीरों को कहा अब अन्न से भरना इसका पात्र ठीक न होगा, स्वर्ण-मुद्राओं से भर दो। उस भिखारी ने फिर कहाः एक बार सोच लें क्योंकि और राजा भी मुसीबत में पड़ चुके हैं। यह शर्त मैंने पहली बार नहीं रखी और द्वारों पर भी रखी है, और आज तक कोई भी द्वार मेरे पात्र को पूरा नहीं भर सका है। राजा हंस पड़ा, बात पर ध्यान देने की उसने जरूरत न समझी, और वजीर को कहा कि जाओ स्वर्ण अशर्फियों से पात्र भर दो। वजीर स्वर्ण अशर्फियां लाया, उसने वे पात्र में डालीं, छोटा सा पात्र था, लेकिन बड़ी अदभुत घटना घटी, पात्र में गिरते ही वे अशर्फियां न मालूम कहां विलीन हो गई? पात्र खाली का खाली रह गया। और तब भीड़ उस द्वार पर बढ़ने लगी थी। मैं भी उस भीड़ में जाकर खड़ा हो गया था। दोपहर हो गई, भिक्षु का छोटा सा पात्र राजा की बहुत बड़ी तिजोरिया न भर सकीं। सांझ होने लगी, सम्राट की तिजोरियां खाली हो गई, लेकिन भिक्षु का पात्र नहीं भरा, नहीं भरा। और तब जो सम्राट किसी से भी कभी हारा न था, वह उस भिखारी से हार गया और उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने क्षमा मांगी कि भूल हो गई है मुझसे, मैं क्षमा चाहता हूं; और आज मुझे एक बड़े सत्य का दर्शन हो गया कि सम्राट की संपत्ति भी एक भिक्षु की भूख को नहीं भर सकती। मुझे माफ कर दो मैं तुम्हारा पात्र पूरा न भर सकूंगा।
भीड़ छंट गई, राजा हार चुका था, लोग अनेक तरह की बातें करते हुए अपने घर चले गए। और वह भिखारी भी अपने रास्ते पर हो गया। लेकिन इतनी आसानी से मैं उस भिखारी को न छोड़ सका और उसके पीछे हो गया। रात गांव के बाहर मैंने उसे पकड़ लिया और उससे पूछा, क्या रहस्य है इस भिक्षा के पात्र का, जो भर नहीं सका? वह भिखारी हंसने लगा और उसने कहाः गांव-गांव मैं गया हूं, और न मालूम कितने द्वार पर कितने अहंकार पराजित हो गए, लेकिन तुम पहले आदमी हो जो मेरे पीछे आए हो और भिक्षा का इस पात्र का रहस्य पूछते हो। मैं इस आदमी की तलाश में था कि कोई मुझसे पूछे उसी के लिए मैं गांव-गांव घूम रहा हूं। लेकिन कोई यह पूछता ही नहीं। इस भिक्षा के पात्र में कोई भी रहस्य नहीं है। और भिक्षा का पात्र उसने मेरे हाथ में दे दिया और उसने कहाः मैं एक मरघट से निकलता था और एक आदमी की खोपड़ी मुझे पड़ी मिल गई, उससे ही मैंने इस पात्र को बना लिया है। और जैसा कि सभी जानते हैं, आदमी का मन कभी भरता नहीं, इसलिए यह पात्र भी भरता नहीं है।
इस कहानी से इसलिए मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि जीवन में सबसे बड़े से बड़े रहस्यों में से समझने की जो बात है वह यही है, मनुष्य का मन जैसा है वह कभी भी भरने में समर्थ नहीं है। मनुष्य की पीड़ा, और चिंता, और दुख, और विषाद, इसी तथ्य से पैदा होते हैं। हम उस मन को भरने की कोशिश में हैं जो भरने में स्वभावतः असमर्थ है। लेकिन इस तथ्य का उदघाटन मुश्किल से ही कोई कर पाता है। और जो इस तथ्य का उदघाटन कर लेता है, उसके जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। लेकिन सामान्यतः मुश्किल से ही शायद हमारी दृष्टि में यह बात दिखाई पड़नी शुरू होती है, हम मन को भरने की कोशिश करते हैं, अनेक-अनेक दिशाओं में, धन से और यश से, और पद से महत्वाकांक्षाओं के न मालूम किन-किन मार्गों पर चल कर हम उसे भरने की कोशिश करते हैं। और इस बात को भलीभांति देखते हुए भी शायद हम अंधे बने रहते हैं कि आज तक कोई भी अपने मन को भर नहीं सका है।
क्या किसी मनुष्य ने मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में यह कहने का साहस दिखाया है कि मेरा मन भर गया, मेरा मन तृप्त हो गया?
क्या किसी ने लंबे दस हजार वर्षों के ज्ञात इतिहास में यह बात कही है कि मैं मन की पूर्ति पर पहुंच गया?
क्या मन की आकांक्षाएं तृप्त हो गईं?
नहीं, एक भी मनुष्य ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। और हर शेष मनुष्य की जीवन कथा, मनुष्य के निरंतर खाली रह जाने की खबर देती है।
अगर यह सत्य का तुम्हें दर्शन हो जाए कि यह मन भरा ही नहीं जा सकता, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, उसी क्षण तुम्हारी भरने की दौड़ समाप्त हो जाएगी और जिस क्षण तुम्हारी यह दौड़ समाप्त हो जाएगी, तुम पाओगे कि तुम सदा से ही भरे हुए हो। जिस क्षण इस मन से तुम्हारा यह आग्रह छूट जाएगा कि मैं इसे भरूं, उसी क्षण तुम पाओगे कि मन के पीछे कोई मौजूद है जो निरंतर भरा हुआ है, जो कभी खाली ही नहीं है। उस सत्य का नाम ही आत्मा है।
मन को भरने की एक दौड़ है, और इस भरने की दौड़ में ही हम आत्मा को नहीं देख पाते हैं। मन को भरने की एक विक्षिप्त दौड़ है, और इस दौड़ में ही व्यस्त होने के कारण हम उसे नहीं उपलब्ध हो पाते हैं जो हम हैं। इस दौड़ से मुक्त हुए बिना, कोई स्वयं की अनुभूति को उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन इस दौड़ से मुक्त होने के लिए कोई प्रयास, कोई पाजिटिव एफर्ट, कोई विधायक चेष्टा, कोई साधना काम नहीं दे सकती। इस मन से मुक्त होने के लिए हम कुछ और जो कुछ भी करेंगे, वह भी मन को ही भरने की दिशा में एक चेष्टा होगी। इस मन से मुक्त होने के लिए इस मन को जानना जरूरी है। इससे पूरी तरह से परिचित होना जरूरी है। इसकी पूरी स्थिति को देखना जरूरी है। और जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, कि मन तो एक बॉटमलेस पिट है, एक अतल खाई है, जिसमें कुछ भी भरा नहीं जा सकता है। जिस दिन यह अतल खाई, मन की स्पष्ट दर्शन में आ जाती है, उसी दिन मनुष्य एक दूसरे… एक दूसरे आयाम में, एक दूसरी दिशा में गतिमान हो जाता है। जहां कभी भी कुछ खाली नहीं है, जहां सब कुछ भरा हुआ है। उस दिशा का नाम ही परमात्मा है। और दो ही दिशाएं हैं, एक मन को भरने की दिशा, जो असफल है, सतत असफल है, जो व्यर्थ है और जिसके अंतिम परिणाम में खाली हाथों के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हो सकता है।
इस मन को कैसे जाना जा सकता है?
इस दिशा में ही इन दो दिनों में आपसे बात करूंगा।
पहली बात-हम सारे लोग मन को जानने की बात तो दूर रही, इसे जानने से बचना चाहते हैं। जानने की बात तो बहुत दूर हम अपनी आंखें चुरा लेना चाहते हैं इस मन से कि कहीं इससे मिलना न हो जाए। कोई आदमी अपनी शक्ल देखने को तैयार नहीं है। कोई आदमी जैसा वह है, वैसा ही अपने को उघाड़ कर देखने का साहस नहीं करता।
हम तो अपने से भाग रहे हैं और भागते-भागते हम रास्ते में जो भी मिलता है, उससे पूछते चलते हैं, आत्मज्ञान का कोई रास्ता है?
अपने से भाग रहे हैं और आत्मज्ञान को उपलब्ध होना चाहते हैं। ये दोनों बातें अत्यंत मूढ़तापूर्ण हैं। ये दोनों बातें इतनी विरोधी हैं कि इससे बड़ा और कोई विरोध, इससे बड़ा और कोई कंट्राडिक्शन नहीं हो सकता।
पूछें अपने से कहीं मैं अपने से भाग तो नहीं रहा हूं?
हम सब भाग रहे हैं। भागने के हमने बहुत से रास्ते ईजाद कर लिए। कोई भी आदमी ठीक अपने आमने-सामने नहीं होना चाहता है। आंख चुराता है अपने से। और इस आंख चुराने के लिए जो उपाय करता है वह यह कि जो वह नहीं है वही अपने को समझ लेता है। हिंसक व्यक्ति अपने को अहिंसक समझ लेता है। अधार्मिक व्यक्ति अपने को धार्मिक समझ लेता है, ताकि जो अधार्मिकता है वह दिखाई न पड़े। वह आमने-सामने न आ जाए। वह सस्ती तरकीबें खोज लेता है। अधार्मिक व्यक्ति रोज सुबह उठ कर मंदिर जाने लगता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं धार्मिक हूं। हिंसक व्यक्ति पानी छान कर पीने लगता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं अहिंसक हूं। कामुकता से भरा हुआ व्यक्ति ब्रह्मचर्य के व्रत ले लेता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं काम और सेक्स से मुक्त हूं। हम जो हैं उससे विरोधी वस्त्र अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। हम जो हैं उससे ठीक उलटी शक्ल, उससे ठीक उलटे मुखौटे, उससे ठीक उलटे वस्त्र हम अपने ऊपर ढांक लेते हैं ताकि दिखाई न पड़े। ताकि दूसरों की आंखों में तो हम छिप ही जाएं, अपनी आंखों में भी छिप जाएं। एक धोखा चल रहा है, दूसरे के साथ नहीं अपने साथ। दूसरों के धोखे हमें दिखाई पड़ जाते हैं, लेकिन खुद जो हम अपने को धोखा दे रहे हैं वह दिखाई नहीं पड़ता।
मैंने सुना है, एक घर में एक मां और बेटी दोनों को ही रात में उठ कर चलने की बीमारी थी। एक रात मां उठी और अपने मकान के पीछे बगिया में चली गई। आधी रात होगी, उसके पीछे ही उसकी लड़की भी उठी और बगिया में चली गई।
मां ने लड़की को देखते ही कहाः वह नींद में ही थी, लड़की को देखते ही उसका चित्त क्रोध और ईर्ष्या से भर गया। और उसने कहा कि इस दुष्ट के कारण ही मेरा सारा यौवन नष्ट हो गया, इसी ने मेरी सारी जवानी छीन ली, मन होता है इसकी गर्दन दबा दूं।
और उस लड़की ने उस बूढ़ी को देखते ही कहाः वह भी नींद में थी, कि इस बूढ़ी औरत के कारण ही मेरा जीवन एक कष्ट और कारागृह बन गया है, मेरी हर खुशी में यह बाधा बन गई है, परमात्मा करे यह उठ जाए, तो मेरे रास्ते के सारे कांटे दूर हो जाएं। लेकिन ये बातें दोनों ने नींद में कहीं थीं। क्योंकि जाग कर तो सच्ची बातें कोई भी कहता नहीं है। तभी मुर्गे ने बांग दी और उन दोनों की नींद खुल गई। और उस लड़की ने जाग कर देखा अपनी मां को और कहाःमां इस सर्दी में तुम बाहर और शॉल भी भीतर छोड़ आईं, अगर सर्दी लग जाए तो? और उस मां ने कहाः बेटी तू इतनी जल्दी उठ आई, चल वापस सो जा, अभी तो दो घंटे हैं। फिर जल्दी उठ आती है इसलिए तो दिन भर थकान मालूम पड़ती है। वे एक-दूसरे के गले में हाथ डाल कर घर में वापस लौट गईं और सो गईं।
नींद में उन्होंने जो कहा था वह और जाग कर जो उन्होंने जो कहा वह, उन दोनों में तो जमीन-आसमान का फर्क है।लेकिन सच्चाई क्या है? जो जाग कर कहा वह या जो नींद में कहा वह?
नींद में तो झूठ बोलने का कोई कारण ही न था, जागने में झूठ बोलने के कारण हैं, क्योंकि जागने में सब सोच-विचार आ गया है कि क्या कहना ठीक है, और क्या नहीं? और जागने में ख्याल आ गया कि कौन मां है और कौन बेटी? और जागने में सारा शिष्टाचार है। और जागने में सारी बातें ख्याल में आ गईं और उन ख्याल में आई हुई बातों से जो पैदा हुआ, वह झूठा है, वह अभिनय है। नींद में तो सच्चाइयां खुल गई थीं!
आदमी की सच्चाइयां उसके सपनों में ज्यादा खुल जाती हैं बजाय उसके जागने के। और एक आदमी अगर नशा करके खड़ा हो जाए, तो ज्यादा सच्चाई से वही होता है जो वह है। वही गालियां बकने लगता है, वही आदमी जो भजन गा रहा था । नशा करके गालियां बकने लगता है।
नशे में कोई ताकत हो सकती है कि भीतर गालियां पैदा कर दे?
नहीं, लेकिन भीतर गालियां भरी थीं, भजन ऊपर थे। और नशे ने सारा बोध छीन लिया, भीतर जो भरा था वह निकलना शुरू हो गया। दिन में हम जागे हैं, रात हम सो गए हैं। होश खो गया है सपने में जो सच्चाइयां थीं वे प्रकट होने लगीं।
आप खुद अपने भीतर अगर थोड़ी खोज-बीन करेंगे तो बहुत डर जाएंगे। कहीं मेरे भीतर यह जो सब जो छिपा है लोगों को पता न चल जाए, कहीं यह उघड़ न जाए, कहीं कोई इसमें झांक न लें। इसलिए जो हमारे भीतर छिपा है हम उसके ऊपर दीवाल पर दीवालें खड़ी करते चले जाते हैं ताकि उसका किसी को पता न लगे, ताकि वह छिपा रहे, ताकि कोई उसमें झांक न ले, हमारा निकटतम मित्र भी हमारा इतना निकट नहीं होता कि हम उसे अपने भीतर झांकने दें।
और तब धीरे-धीरे डर से और भय से हम भी अपने भीतर झांकना बंद कर देते हैं। और फिर हम पूछते हैं, आत्म-ज्ञान कैसे हो? सत्य कैसे मिले? परमात्मा के दर्शन कैसे हों?
जो अपने ही दर्शन करने को राजी नहीं है, वह और किस सत्य के दर्शनकरने की आकांक्षा कर सकता है?
या उसकी आकांक्षा में कितनी सच्चाई हो सकती है? कितनी उत्कंठा हो सकती है?
मनुष्य के समक्ष मनुष्य का मन जैसा है–क्रोध, हिंसा और ईर्ष्या जो कुछ भी है, उसे बहुत सरलता से वैसा ही जानना जरूरी है। सारे वस्त्र ओढ़े हुए उतार देने जरूरी हैं। नग्न चित्त के समक्ष खड़ा होना जरूरी है। यह तो पहली बात है कि हम अपने से बचना बंद कर दें। अगर किसी भी दिन हमें जीवन की गहराइयों में उतरना हो, और किसी भी दिन हमें जीवनके अर्थ और अभिप्राय को जानना हो और किसी भी दिन हमें जीवन में छिपे सौंदर्य और आनंद की अनुभूति करनी हो तो अपनेआप से पलायन बंद कर देना होगा, अपने आप से भागना बंद कर देना होगा। और अपने वस्त्रों को उघाड़ कर देखना ही पड़ेगा चाहे यह कितना ही पीड़ादायी हो, चाहे यह कितना ही कष्टप्रद हो, और चाहे कितनी ही सांत्वना हमसे छिन जाए, और हमारा संतोष नष्ट हो जाए। लेकिन देखना ही होगा इस बात को, इसे बिना देखे कोई रास्ता सत्य तक न कभी गया है और न जा सकता है।
यह तो पहली बात (पहला सूत्र) है कि हम अपने से भागना बंद कर दें। और अपने से हम भाग रहे हैं, नये-नये रास्ते खोज रहे हैं, और ये अपने से भागना इतना ज्यादा तीव्र हो सकता है, यह अपने आपकी पीड़ा इतनी गहरी हो सकती है कि हम किसी तरह ना केवल अपने से भागना चाहें, बल्कि पीड़ा से अपने को भूलना भी चाहें। भागने के बाद भूलने की सीमा आ जाती है।घबड़ा कर जो आदमी अपने से निरंतर भागता रहता है, आखिर में उसे पता चलता है मैं कितना ही भागूं, लौट-लौट कर कुछ चीजें दिखाई पड़ जाती हैं। बार-बार अपने से मिलना हो जाता है।
आखिर कोई अपने से भाग कैसे सकता है? किसी और चीज से भागता तो भाग भी सकता था?
मैं अगर भाग कर जंगल चला जाऊं, आप सब तो पीछे छूट जाएंगे, लेकिन मैं, मैं अपने साथ ही वहां पहुंच जाऊंगा। मैं जहां भी भागूंगा, मैं अपने साथ रहूंगा, तो भागने की अतिश्यता एक दिन इस निष्कर्ष पर ले आती है कि भागने से काम नहीं चलेगा, भूलना जरूरी है। तब हजार तरह के नशे खोजने की बात शुरू हो जाती है। कोई आदमी शराब पीकर अपने को भूलना चाहता है, कोई आदमी संगीत में भूलना चाहता है, कोई आदमी सेक्स में अपने को भूल जाना चाहता है। कुछ भले लोग हैं, वह इस तरह के नशे करना पसंद नहीं करते, तो उन्होंने भले आदमियों के नशे ईजाद कर लिए हैं, कोई राम-राम जप कर अपने को भूल जाता है, कोई मंदिर में जाकर भजन-कीर्तन करता है, नाचता है और भूल जाना चाहता है। कोई गीता और कुरान और बाइबिल पढ़ता है और उन्हीं में अपने को भूल जाना चाहता है। लेकिन नशे चाहे अच्छे हों, चाहें बुरे, उनका काम एक ही है कि किसी भांति हम अपने को भूल जाएं, वह जो हम हैं, उसकी हमें स्मृति न रह जाए। वह द्वार बंद हो जाए, जो हम हैं। बहुत राहत मिलती है। जैसे ही कोई अपने को भूलने में समर्थ होता है, बहुत राहत मिलती है।
यूरोप और अमरीका में वे नई-नई इजादें कर रहे हैं, नये ड्रग्स खोज रहे हैं–मेस्कलीन हैं, एल एस डी है, और कुछ है।बहुत पुराने दिन से यह खोज चल रही है, वेद के ऋ षियों से लेकर आज तक, सोमरस से लेकर एल एस डी तक वही खोज चल रही है कि अपने को किस तरह भूल जाएं?
कोई नशा कर लें और अपने को भूल जाएं। भूल जाने में अच्छा लगता है क्योंकि अपने को जानने में बुरा लगता है। वह जो अपने को जानने की पीड़ा है, दंश है, द्वंद्व है, तकलीफ है कि मैं यह क्या हूं?
उसे जितनी देर को हम भूल जाते हैं तो हम तो भगवान हो जाते हैं क्योंकि वह सारा अंधेरा भूल गया। सब ज्योति हो गई, वे सारे घाव भूल गए, सब स्वस्थ्य हो गया। वे सब पीड़ाएं भूल गईं, चिंताएं भूल गईं, सब शांत और संगीत हो गया, लेकिन कोई अपने को कितनी देर भूले रह सकता है?
और भूले रहना क्या कोई क्रांति है या कि कोई परिवर्तन?
भूलना कोई मार्ग तो नहीं हो सकता। न भागना कोई मार्ग हो सकता है, न भूलना कोई मार्ग हो सकता है। भूलने से क्या हित है?
सो जाने से कौन सी राहत है?
सो जाने से वह चीज दबी रह जाएगी भीतर, दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन कब तक सोए रहेंगे?
क्या सोने से उसका अंत हो जाएगा जिससे हमने भागना चाहा था?
क्या आत्म-विस्मरण से जीवन की चिंता से छुटकारा हो जाएगा?
क्या आत्म-विस्मरण मुक्ति बन सकता है?
नहीं, बिल्कुल नहीं, कभी भी नहीं, बल्कि जितनी देर आत्मविस्मरण में बीतता, उतना जीवन व्यर्थ हो जाता है, उतना अवसर खो जाता है, जिसमें हम अपने को जान लेते और शायद बदल लेते। उतना अवसर अपने हाथ से हम खो देते हैं। उतना अवसर हमारे हाथ से व्यर्थ रीत जाता है।
उतनी शक्ति और क्षमता जो हमने अपने को भुलाने में लगाई काश हम अपने को जगाने में लगाते, तो जिंदगी और हो सकती थी। जिंदगी कुछ और हो सकती थी। बात कुछ और हो सकती थी।
लेकिन हमने अपने को भुलाने में लगाया है, एक आदमी के पैर में फोड़ा हो और वह नशा करके भूल जाए। एक आदमी के सिर में दर्द हो, और वह अफीम खाकर सो जाए। और एक आदमी की जिंदगी में चिंता हो, पीड़ा हो, परेशानी हो और वह भजन करता रहे और भूल जाए।
क्या इससे कोई पीड़ा, इससे कोई दुख, इससे कोई बीमारी का अंत होता है?
नहीं उसका तो कोई अंत फिर कैसे होगा?
उसका अंत तो उसके साक्षात से हो सकता है, उसके मुकाबले से हो सकता है, उसके निकट जानने से उसे पहचानने से हो सकता है, ज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य के जीवन की चिंता और दुख से कोई छुटकारा नहीं है। लेकिन ज्ञान से शायद हम भयभीत हैं, क्योंकि ज्ञान की पहली सीढ़ी अपने को जानना होगी। और अपने को जानने का अर्थ आत्मा को जानना नहीं है, अपने को जानने का अर्थ परमात्मा को जानना नहीं है, अपने को जानने का पहला और सीधा अर्थ अपने चित्त को, अपने मन को जानना है। मन शांत हो जाए, समाप्त हो जाए, मन विलीन हो जाए, तो जो जाना जाएगा वह है आत्मा।मन के रहते, मन की इस दौड़ और आकांक्षा में डूबे रहते, उससे कोई परिचय नहीं हो सकता।
जैसे समुद्र में तूफान हो और सारी समुद्र की छाती लहरों से भरी हो, तो उन लहरों में डूबे समुद्र को, उस समुद्र की शांति को, उस समुद्र की अथाह गहराई को देखना और जानना असंभव है। हां शांत हो जाएं लहरें तो समुद्र सामने आएगा, शांत और गहरा और अथाह । लेकिन लहरों के तूफान में तो उसका कोई दर्शन नहीं हो सकता। मन का तूफान है, विचार का तूफान है, चिंता का तूफान है, बहुत लहरें हैं। तो उन लहरों के नीचे छिपी आत्मा के सागर से कोई मिलन नहीं हो सकता।
इन लहरों को जानना ही होगा, इन लहरों को जान कर, इनके विलीन होने पर ही पीछे छिपे सागर की अनुभूति हो सकतीहै। तो पहला कदम बहुत नकारात्मक है, और वह यह कि अपने से भागना हम बंद करें। लेकिन पहले तो यह समझ लें की हम अपने से भाग रहे हैं; आमतौर से तो हम समझते हैंः मैं भाग कहां रहा हूं अपने से? लेकिन हम भाग रहे हैं। इस तथ्य को मेरे कहने से नहीं, अपने भीतर, अपनी जिंदगी में खोजने से ही देखा जा सकता है। (हम नौकरी कर रहे हैं तो अगला प्रमोशन होना है, उसके लिए हम जो भी कर रहे हैं वह भागना ही है। क्योंकि सबसे ऊँचे पदों पर से रिटायरमेंट लेकर मारने वाले भी रीते ही रहे आत्मज्ञान से। यानी या तो नौकरी छोड़ देवें या नौकरी में प्रमोशन की बजे आत्मज्ञान में प्रमोशन की तरफ़ कदम बढ़ायें। हम धंधा या व्यवसाय कर रहे हैं तो आगे और विस्तार नहीं करें बल्कि अपने बच्चों को जिम्मेदारी सौंप देवें। और आत्मज्ञान की तरफ़ अपने विस्तार करें। कहने का मतलब है सांसारिक को रोककर उसकी बजाये आध्यात्मिक विस्तार की तरफ़ कदम बढ़ायें)
दूसरा कदम (दूसरा सूत्र) नकारात्मक है:-
अगर रात सोते में हमारे ओढ़े हुए सारे वस्त्र, हमारे व्यक्तित्व की सारी चादरे कोई खींच ले, और सुबह हम पाएं कि वह जो पद, वह जो नाम, वह जो प्रतिष्ठा, वह जो सब कुछ अखबारों ने हमारे लिए कहा था वह और पड़ोस के लोग जो हमसे कहते थे, वह सब छीन लिया गया है। और मेरे पास वह कुछ भी नहीं है। वह तख्तियां जो मैंने घर के आगे लगा रखीं थीं, वह सर्टिफि केट जो मेरे पास थे, वह मेरे पास कुछ भी नहीं है। (मौत के समान) उस नग्न अवस्था में हम भी अपने को न पहचान पाएंगे। हम अपने को पहचानते ही नहीं हैं, दूसरे लोग हमें पहचानते हैं, इसी से हम अपने को पहचानने लगते हैं।
कोई आपसे कहता है, आप बहुत भले आदमी हैं, और आपके भीतर एक ख्याल बन जाता है कि आप बहुत भले आदमी हैं।और कोई कहता है आप बहुत बुरे आदमी हैं, तो आपको चोट लगती है क्योंकि पहले आदमी ने जो भले आदमी की आपके भीतर धारणा भर दी थी, ये उस धारणा को छीन रहा है और आप फिर खाली हो जाएंगे। और भीतर फिर कोई धारणा न रह जाएगी। (चोंट बिना धारणा के रहने से है जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं?) चौबीस घंटे हम अपने संबंध में एक इमेज, एक प्रतिमा खड़ी करने में लगे हुए हैं, और यह प्रतिमा हम खड़ी कर भी लेते हैं, कोई कुछ बन जाता है, कोई कुछ, लेकिन भीतर, भीतर वह जो हमारे छिपा है, उससे हम अपरिचित ही रह जाते हैं। और यह प्रतिमा रोज-रोज बदलनी पड़ती है, क्योंकि आस-पास के लोग रोज बदल जाते हैं।
नेपोलियन हार गया और सेंट हेलेना के द्वीप में उसको बंद कर दिया गया। महान विजेता एक कैदी की भांति बंद हो गया था। लेकिन दुश्मनों ने भलमनसाहत बरती थी। उसके हाथ में हथकड़ियां नहीं डालीं थीं। द्वीप पर चलने-फिरने की उसे आजादी थी। लेकिन द्वीप से भागने का कोई उपाय न था। सुबह ही सुबह वह घूमने निकला था। और दुश्मनों ने यह भी भलमनसाहत की थी कि उसके डाक्टर को भी उसके पास छोड़ दिया था। डाक्टर और वह दोनों घूमने निकले थे, सुबह-सुबह। एक पगडंडी पर उस ओर से छोटे से पहाड़ी रास्ते पर एक औरत अपने घास की गठरी लिए हुए आती थी।नेपोलियन का डाक्टर एकदम चिल्लाया और कहा, ओ घसियारिन! रास्ता छोड़, देखती नहीं है नेपोलियन आ रहा है।लेकिन नेपोलियन ने उस डाक्टर को कहाः मेरे मित्र वह प्रतिमा नष्ट हो गई, जो कल तक मेरी थी। तुम भूल में हो, अब कोई नेपोलियन नहीं है, मैं एक साधारण कैदी हूं। तुम वही प्रतिमा ढोए जा रहे हो, जो कल तक मेरी थी, वह टूट गई।मुझे रास्ते से हट जाना चाहिए और नेपोलियन रास्ते से हट गया। और उसने कहा वे दिन गए, जब मैं पहाड़ से कहता कि हट जाओ, और पहाड़ हट जाते थे। आज एक घास वाली औरत के लिए मुझे हट जाना चाहिए।
यह नेपोलियन बहुत समझदार आदमी रहा होगा। इस बात को समझ सका कि वह प्रतिमा मैंने बनाई थी इतने दिन तक वह टूट चुकी है। हम सब भी अपनी प्रतिमा बना रहे हैं। हो सकता है मौत तक न भी टूटे, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ताहै? अगर हम अपनी प्रतिमा को ही जानते हैं तो वह प्रतिमा झूठी है, हमारी बनाई हुई है। और उस प्रतिमा को ही अगर हमने मान लिया कि मैं हूं तो हम उसको कभी न जान सकेंगे जो वस्तुतः मैं हूं। जो प्रतिमा से उलझ गया वह आत्मा को कभी न जान सकेगा। इस प्रतिमा को इसके पहले की मौत तोड़ दे, या इसके पहले की कोई बड़ी हार नेपोलियन की प्रतिमा को तोड़ दे, जो आदमी समझता है वह खुद ही इस प्रतिमा को तोड़ देता है और भीतर प्रवेश करता है, वहीआदमी साधक है, जो अपने हाथ से बनाई गई प्रतिमा को तोड़ कर भीतर प्रवेश करता है।
वह प्रवेश कैसे हो सकता है? उसकी चर्चा मैं कल सुबह आपसे करूंगा, आज तो मुझे इतना ही कहना था कि हमने एक झूठी प्रतिमा अपने बाबत खड़ी कर ली है। एक फॉल्स इमेज हमने बना लिया है, कोई वजह है, कोई कारण है इसलिए हमने यह बना लिया है।आत्मज्ञान का जो अभाव है उसको भरने के लिए हमने एक झूठी प्रतिमा बना ली है और उसी को मान लिया है कि मैं हूं।
इस प्रतिमा के भीतर बिल्कुल उलटी हमारे चित्त की स्थिति है। हमने ऊपर फूल चिपका लिए हैं, भीतर दुर्गंध भरी है।हमने ऊपर रोशनी कर ली है, भीतर अंधेरा भरा है। और उस अंधेरे से हम डरते हैं कहीं उसका हमें पता न चल जाए।क्योंकि उसका पता इस प्रतिमा की हत्या हो जाएगी। यह प्रतिमा टूट जाएगी अगर उसका हमें पता चल गया। लेकिन गुजरना ही पड़ता है इस रास्ते से, उस प्रतिमा को तोड़ने के रास्ते से, अन्यथा कोई फिर और गहरे और भीतर नहीं जा सकता।फिर वह अपने से बाहर ही घूमता हुआ रह जाता है।
अपनी-अपनी प्रतिमाओं में, अपने-अपने इस झूठे रूप में हमने अपनी-अपनी कब्र बना ली हैं, उसके भीतर हम सुरक्षित हो गए हैं।
यह सुरक्षा मौत है। और इस मौत से बेचैनी और घबड़ाहट पैदा होती है। इस सुरक्षा से बाहर निकलने का मन होता है।स्वतंत्रता की आकांक्षा होती है, चिंता होती है, अशांति पैदा होती है तब हम पूछते हैं कि हम शांत कैसे हो जाएं? हम मुक्त कैसे हो जाएं?
अमुक्ति हमने बना ली है, बंधन हमने खड़े कर लिए, दीवालें हमने बना लीं, कब्र हमने खड़ी कर ली हैं और हम पूछ रहे हैं सारी दुनिया में कि हम मुक्त कैसे हो जाएं? कौन करेगा मुक्त आपको?
कोई तीर्थंकर करेगा, कोई अवतार करेगा, कोई बुद्ध करेंगे, कोई गुरु करेगा?
कोई किसी दूसरे को मुक्त नहीं कर सकता। आप तो अपनी दीवालें खड़ी कर रहे हैं, और चिल्लाते हैं कि हमें मुक्त होना है। कृपा करें। पहचानें, आप अपनी अमुक्ति खुद हैं। और जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा कि आपकी सुरक्षा ही आपका बंधन और कारागृह बन गई है, अपनी ही सुरक्षा में खड़ी की गई अपनी ही प्रतिमा हमारी मृत्यु बन गई है, उसी दिन इस प्रतिमा को तोड़ देना क्षण भर का काम होगा। आप इसको बनाते हैं इसलिए यह है। जिस दिन आप नहीं बनाते हैं उसी दिन यह विलीन हो जाती है। इसकी अपनी कोई सामर्थ्य और शक्ति नहीं है।
अमुक्ति/कारागृह/बंधन मनुष्य का अपना सृजन है, और जिस दिन वह इसका सृजन बंद कर देता है, उसी क्षण मुक्त हो जाता है। और जो मुक्त है उसके लिए न कोई दुख है, न कोई पीड़ा है उसके लिए शाश्वत आनंद के, अमृत के द्वार खुल जाते हैं। और उस आनंद में वह जिसे पहचानता है, वही परमात्मा है, तब सब तरफ परमात्मा ही शेष रह जाता है। जब तक हम अपने कारागृह में बंद हैं तब तक हमारे भीतर भी परमात्मा नहीं है और जिस दिन हम अपने कारागृह को तोड़ कर मुक्त हो जाते हैं, उसी दिन सब तरफ भीतर और बाहर वही है, केवल वही है, केवल परमात्मा ही है। उसे जो जान लेता है वह धन्य है, वह कृतार्थ हो जाता है। जो उससे अपरिचित रह जाता है, उसका जीवन एक दुख की कथा है, उसका जीवन एक लंबी मृत्यु है, उसका जीवन एक अंधकारपूर्ण रात्रि है, उसके जीवन में जीवन जैसा कुछ भी नहीं है।
Osho was against all traditions.
4 सितंबर 1965, पुणे
दूसरा प्रवचन-शून्य का संगीत
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहूंगा।
एक रात एक पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था। उस रात एक बड़ी अजीब घटना घट गई थी। वह घटना रोज ही याद आ जाती है, क्योंकि रोज ही उस घटना से मिलते-जुलते लोगों के दर्शन हो जाते हैं। उस रात उस पहाड़ी सराय में जाते ही पहाड़ी की पूरी घाटी में एक बड़ी मार्मिक आवाज सुनाई पड़ी थी। कोई बहुत ही दर्द भरे स्वरों में कुछ पुकार रहा था। लेकिन निकट जाकर मालूम पड़ा कि वह कोई आदमी न था, वह सराय के मालिक का तोता था। वह तोता अपने सींखचों में बंद था, अपने पिंजड़े में, और जोर से स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! चिल्ला रहा था। उसकी आवाज मेंबड़ा दर्द था, जैसे वह हृदय से आ रही हो। जैसे उसके प्राण स्वतंत्रता के लिए प्यासे हों, और उस पिंजरे में बंद उसकीआत्मा जैसे छटपटाती हो मुक्त हो जाने को। उस तोते की उस आवाज में मुझे दिखाई पड़ा जैसे हर आदमी के भीतर कोई बंद है, पिंजरे में, और मुक्ति के लिए प्यासा है और चिल्ला रहा है। उस तोते से बड़ी सहानुभूति मालूम हुई, लेकिन सुबह ही मुझे पता चला कि बड़ी गलती हो गई। वह तोता चिल्लाता रहा। मालिक सराय का सो गया, और सराय के दूसरे मेहमान भी सो गए, तो मैं उठा, उस तोते के पिंजरे को खोला और उस तोते को मुक्त करना चाहा। मैं उस तोते को बाहर खींचता था और तोता भीतर सींखचों को पकड़ता था और चिल्लाता था, स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! मैंने बामुश्किल उस तोते को खींच कर पिंजरे के बाहर किया, इस पिंजरे से खींचने में उसने मेरे हाथ पर भी काट लिया, हाथ पर चोट भी की। उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर मैं निश्चिंत हो गया। और मुझे लगा कि चलो एक आत्मा मुक्त हुई। मैं निश्चिंत जाकर सो गया, लेकिन सुबह पांच बजे जब मेरी नींद खुली तो मैंने देखा, तोता अपने पिंजरे में वापस बैठा है और चिल्ला रहा है–स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
तब मुझे बड़ी हैरानी हुई। तब मेरी समझ में आया कि यह स्वतंत्रता की प्यास तोते के हृदय से नहीं उठ रही है, यह सिखाई गई प्यास है। यह आवाज उसके मालिक ने सिखाई है, उसी मालिक ने जिसने उसे पिंजरे में बंद किया हुआ है।और यह तोता पिंजरे को भी पकड़े हुए है, छोड़ना भी नहीं चाहता, और स्वतंत्रता की आवाज भी दिए चला जाता है। फिर वह बात भूल जानी चाहिए थी, वह बात बहुत दिन हो गई बीते हुए। लेकिन रोज मुझे ऐसे आदमी मिल जाते हैं, जो चिल्लाते हैंः स्वतंत्रता चाहिए, मुक्ति चाहिए, परमात्मा चाहिए। और मैं उनको गौर से देखता हूं, तो पाता हूं, वे अपने पिंजरों को पकड़े हुए हैं, और अगर उनको निकालने की कोशिश करो, तो तोते की भांति वे भी हमला करते हैं, वे नाराज होते हैं। और अगर उन्हें कोई जबरदस्ती निकाल कर बाहर भी कर दे, तो बाहर वे हो भी नहीं पाते, थोड़ी देर में वे फिर (उनके मालिक/मन के पिंजरे में )भीतर दिखाई पड़ते हैं।
वे लोग जो स्वतंत्र होना चाहते हैं, वे लोग ही अपने हाथ से अपने पिंजरे बनाए हुए हैं, अपने हाथ से अपनी जंजीरें निर्माण कर रहे हैं। वे लोग जो मुक्ति के आकाश में उड़ना चाहते हैं, उन्हें मैं आदमियों के द्वारा बनाए गए मंदिरों में बंद देखता हूं।वे लोग जो मोक्ष की कामना करते हैं, आदमी के द्वारा निर्मित किताबों में उन्हें बंद देखता हूं। वे लोग जो स्वत्रंतता की प्यास की गुहार मचाते हैं, उनको मैं देखता हूं कि हजार-हजार परतंत्रताओं में उन्होंने खुद अपने को बांध लिया है। तब बहुत हैरानी होती है, और उस तोते की मुझे याद आ जाती है।
तोता तो दया करने योग्य था, लेकिन इन आदमियों केलिए क्या किया जाए?
तोता तो फिर भी तोता था, और सिखाई हुई बातें दोहरा रहा था, लेकिन क्या आदमी भी सिखाई हुई बातें तो नहीं दोहरा रहा है?
क्या यह ईश्वर की प्यास और सत्य की खोज और यह मुक्ति की कामना, ये भी कहीं सिखाए हुए पाठ तो नहीं हैं?
क्योंकि अगर ये सिखाए हुए पाठ न होते तो यह अदभुत घटना कैसे घट सकती थी कि जोआदमी मुक्त होना चाहता है वही अपने हाथ से अपनी जंजीरें निर्मित करता हो?
एक तरफ चिल्लाता हो कि मुझे मुक्ति का आकाश चाहिए, और दूसरी तरफ पिंजरे बनाता हो और कारागृह बनाता हो। ये एक ही आदमी के द्वारा कैसे संभव हो सकता था?
लेकिन यह आश्चर्यजनक घटना हम सबके जीवन में घट रही है। शायद कारण यह हो सकता है कि जिन बातों को हम स्वतंत्रता के लिए मार्ग समझ रहे हैं, वे ही बातें पिंजरा बन जाती हों और हमें इसका पता न हो। शायद जिन बातों कोहम मुक्ति की सीढ़ी समझते हों, वही हमें अमुक्ति में ले जाने का द्वार बन जाता हो और हमें इसका बोध न हो। इस संबंध में ही थोड़ी सी आज मुझे बात करनी है। शायद उस तरफ कुछ इशारे करने से हमें अपनी परतंत्रताएं और कारागृह दिखाई पड़ जाएं। और बड़े रहस्य की बात यह है कि उनका दिखाई पड़ जाना ही उनसे मुक्त हो जाना हो जाता है। उनके लिए कुछ और नहीं करना पड़ता है।
एक रात एक बड़ी अजीब घटना घट गई। मरुस्थल के अत्यंत निर्जन स्थान पर वह सराय थी। काफिले आकर ठहरते और आगे बढ़ जाते। उस रात भी एक बड़ा काफिला वहां आकर ठहरा। उस काफिले के मालिकों ने अपने ऊंटों पर से सामान निकाला है और अपने ऊंट बांधे, लेकिन अंत में उन्हें पता चला कि उनके पास सौ ऊंट थे, लेकिन एक खूंटी किसी ऊँट की रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट बंध गए थे, लेकिन एक ऊंट अनबंधा रह गया था। अंधेरी रात में उस निर्जन रास्ते पर उसे बिना बंधा नहीं छोड़ा जा सकता था, उसे बांधना जरूरी था। मालिकों ने जाकर सराय के बूढ़े को पूछा कि क्या एक रस्सी और एक खूंटी मिल सकेगी?
एक ऊंट हमारा अनबंधा रह गया है, और अंधेरी रात में अनबंधा ऊंट छोड़नाठीक नहीं है।
उस बूढ़े सराय के रखवाले ने कहाः रस्सी और खूंटी तो यहां नहीं हैं, लेकिन जाओ गड़ा दो खूंटी और बांधदो रस्सी और ऊंट को बांध दो।
वे हंसे और उन्होंने कहा, अगर हमारे पास खूंटी और रस्सी होती तो हम तुमसे पूछने नआते। वही तो नहीं है, ऊंट को कैसे बांधे?
तो उस बूढ़े ने कहाः झूठी खूंटी गड़ा दो और झूठी रस्सियां बांध दो। ऊंट को पता भर चल जाए अंधेरे में कि खूंटी गाड़ी गई और रस्सी बांधी गई, ऊंट सो जाएगा।
उनको विश्वास न पड़ा, उन्होंने कहा, हमें विश्वास नहीं पड़ता।
वह बूढ़ा हंसने लगा, उसने कहा, तुम पागल हो, ऊंट तो ऊँट आदमी भी झूठी खूंटियों में बांध दिए जा सकते हैं। जाओ कोशिश करो।
मजबूरी थी, खूंटी थी नहीं, और उस बूढ़ेकी बात को ही प्रयोग करके देख लेना लाजमी था। काफिले का मालिक गया और एक झूठी खूंटी उसने अपनी जिंदगीमें पहली दफा गाड़ी। बड़ी हैरानी से गाड़ रहा था, खूंटी थी नहीं, लेकिन वैसे ही आवाज कर रहा था जैसे कि खूंटी होती और गाड़ी जाती। ऊंट खूंटी गाड़ने की आवाज सुन कर बैठ गया, मालिक हैरान हुआ, ऊंट राजी हो रहा है। उसने एक रस्सी बांधी जो नहीं थी, और ऊंट के गले पर हाथ फेरा, जैसे कि रस्सी बांधते वक्त हमेशा फेरता रहा था। ऊंट बंध गया, ऊंट सो गया। मालिक भी अपनी जगह जाकर सो गया, और हैरान हुआ कि बूढ़ा बड़ा अनुभवी है, ऊंटों के संबंध में उसका बड़ा ज्ञान है।
सुबह जल्दी ही काफिला चलने को तैयार होने लगा, निन्यानबे ऊंटों की खूंटियों उखाड़ ली गईं और रस्सियां निकाल दी हैं, लेकिन सौवें ऊंट पर तो कोई खूंटी थी, न कोई रस्सी थी। निकाला भी क्या जाता?
उसे जबरदस्ती धक्के देकर उठानेकी कोशिश की जाती रही, लेकिन ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया। वह बंधा हुआ है। वह उठता भी कैसे?
काफिले का मालिक घबड़ा गया कि क्या इस बूढ़े पहरेदार ने कोई जादू कर दिया है। शक तो रात में भी हुआ था, वह गया उस बूढ़े के पास, कि तुमने क्या कर दिया है ऊंट को?
ऊंट उठता नहीं। उस बूढ़े ने कहाः पागलों पहले उसकी खूंटी निकालो और रस्सी खोलो।
तो उस ऊँट के मालिक ने कहाः लेकिन खूंटी हो, रस्सी हो, तब हम खोलें?
वह बूढ़ा पहरेदार बोलाः जिस भांति रात अदृश्य खूंटी गाड़ी थी, उसी भांति निकालनी पड़ेगी और अदृश्य रस्सी बांधी थी, उसी भाँति खोलनी पड़ेगी। ऊंट के लिए खूंटी गड़ गई है और ऊंट के लिए रस्सी बंध गई है।
मजबूरी में उस खूंटी को निकालना पड़ा, जो नहीं थी, और उस रस्सी को खोलना पड़ा, जिसका कोई अस्तित्व न था।रस्सी खोलते ही, खूंटी उखाड़ते ही, ऊंट उठ कर खड़ा हो गया।
उस बूढ़े ने हंस कर कहाः खूंटियों की जरूरत बहुत ज्यादा नहीं है, झूठी खूंटियां भी काम दे देती हैं। और स्मरण रहे, सच्ची खूंटियां उतने जोर से कभी नहीं बांधती जितनी झूठी खूंटियां बांध देती हैं। क्यों? क्योंकि उनको निकालना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वे होती ही नहीं।(हमारा अहंकार भी कुछ इसी प्रकार का वस्त्र है जिसे हम ओढ़े रहते हैं, इसलिए उसको उतारना ज़्यादा कठिन होता है। और हम उससे उसी प्रकार बंधे होते हैं जैसे वो ऊँट बँधे हुए थे। ध्यान उस झूठी खूँटियों को उखाड़ने में हमारी मदद करता है। क्योंकि ध्यान में भी हम कुछ नहीं करते हैं! )
आदमी के ऊपर भी जो बंधन हैं वे सौवें ऊंट की भांति हैं। वे सच में अगर हों, तो भी कोई बात थी। उनका होना एकदम काल्पनिक है, एकदम मन का है। उन्हें देख लेना ही उनसे मुक्त हो जाने के लिए काफी है।
तो उस तरफ ही ये थोड़ी सी बातें आज मुझे आपसे कहनी हैं, ताकि वे बंधन दिखाई पड़ सकें जो कि वस्तुतः नहीं हैं, लेकिन फिर भी हमें बांधे हुए हैं। ताकि वे सींखचें दिखाई पड़ सकें और पिंजरे और कारागृह जिनमें हमने अपनी आत्मा को खुद ही कैद किया हुआ है, और हम चिल्ला रहे हैं कि स्वतंत्रता चाहिए। और गुरुओं को खोज रहे हैं, और सत्संग कर रहे हैं, और उपवास कर रहे हैं, और सिर के बल खड़े हो रहे हैं, और न मालूम क्या-क्या उपाय कर रहे हैं। उन बंधनों से छूटने का जो हमारे ही द्वारा निर्मित हैं और एकदम काल्पनिक हैं।
कौन से वे बंधन हैं जो चित्त को एक गुलामी में परिवर्तित कर देते हैं और चित्त को एक दुख और चिंता में बदल देते हैं?
और चित्त एक अंधेरी रात की भांति हो जाता है जहाँ सिवाय टकराने, चोट खाने और गड्ढों में गिर जाने के अतिरिक्त कोई यात्रा नहीं रह जाती।
कौन से वे बंधन हैं और कैसे उनसे हम जाग सकते हैं?
और कैसे जीवन की परिपूर्णता को, जीवन की प्रफुल्लता को, जीवन के आनंद को, औरसत्य को अनुभव कर सकते हैं?
मनुष्य के चित्त को अंधकार में, अज्ञान में, भूले हुए रास्तों पर भटकने के लिए जिस चीज ने बहुत बड़ा आधार रखा है, वह है हमारा अंधविश्वास, हमारा अंधापन, हमारी श्रद्धा, यह शब्द बहुत आदृत हो गया है हजारों साल की पूजा के कारण।लेकिन इससे जहरीला, इससे ज्यादा विषाक्त और कोई शब्द नहीं है। श्रद्धा ने, विश्वास ने, बिलीफ ने आदमी के जीवनको एक अंधकारपूर्ण कारागृह बना दिया है। क्योंकि उस शब्द का बहुत बुनियादी अर्थ आदमी को अंधा होने के लिए राजी करता है। और जो आदमी अंधा हो जाता है फिर वह कैसी भी खूंटियों पर विश्वास कर सकता है। क्योंकि अगर वह आंख खोले तो दिखाई पड़ सकता था कि खूंटियां झूठी थीं, वह ऊंट उस रात धोखे में आ गया, शायद दिन होता तो धोखे में न आता। रात अंधेरी थी, झूठी खूंटी गाड़ी जा रही थी, ऊंट को दिखाई नहीं पड़ रहा था। आदमी की जिंदगी में रात पैदा करने की तरकीब ईजाद कर ली गई है। आदमी की आंख (श्रद्धा/विश्वास के नाम पर) बंद कर दी जाए तो रात हो जाती है। फिर उसअंधेरी रात में उस बंद आखों में कोई भी बंधन खड़े किए जा सकते हैं।
विश्वासों ने मनुष्य की आंखों पर पट्टियां बांध दी हैं। विश्वास का अर्थ है कि हम उन बातों को स्वीकार कर लेते हैं जिन्हें जानते नहीं। जिन्हें हमारे प्राणों ने अनुभव नहीं किया। जिन्हें हमारे जीवन ने स्पर्श नहीं किया। हम उन शब्दों को और सिद्धांतों को पकड़ लेते हैं, इस भांति जैसे कि हम उन्हें जानते हों और फिर यही रुकावट बन जाती है, खोज का यही अंत हो जाता है।
बचपन से यह विश्वास मन में डालना शुरू कर दिया जाएगाः ईश्वर है, मोक्ष है, नरक है, स्वर्ग है। और यह भी बात सिखाई जाएगीः कभी संदेह मत करना। संदेह करने वाला आदमी भटक जाता है। जब कि सच्चाई यह है कि जो संदेह करता है वही किसी दिन सत्य पर पहुंच पाता है। जो संदेह नहीं करता उसके सत्य तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है।लेकिन विश्वास करने वाला सिखाता है, संदेह मत करना, डाउट मत करना, विश्वास करना; जरा भी संदेह मत लाना, बस विश्वास करना।
यह कितनी नासमझी की बात है कोई आदमी कितना ही विश्वास करे, क्या विश्वास करने से उसके भीतर के संदेह का अंत हो सकता है?
जबरदस्ती लाया गया विश्वास क्या भीतर संदेह को समाप्त कर सकता है?
संदेह भीतर मौजूद रहेगा। लाख विश्वास को हम ऊपर से ओढ़ते चले जाएं, लेकिन भीतर जब तक चेतना जागी हुई है वह कहेगी, मुझे यह पता नहीं, यह सही भी हो सकता है, यह गलत भी हो सकता है। इस संदेह को कुचलते जाओ। विश्वास की शिक्षा है संदेह को कुचलो, इसके प्राण ले लो, इसकी गर्दन दबा दो, इसकी आवाज बाहर मत आने दो और तुम विश्वास को ओढ़ते चले जाओ। ऐसा आदमी अगर अपने भीतर के संदेह की हत्या करने में समर्थ हो गया है, तो वह समझ ले कि उसने संदेह की नहीं अपनी ही आत्महत्या कर ली है, क्योंकि तब उसका अंधापन स्थायी हो गया, जिसका इलाज नहीं हो सकेगा।
लेकिन कोई आदमी कभी भी अपने भीतर के संदेह की पूरी हत्या करने में कभी समर्थ नहीं हो पाता है। ऊपर से विश्वास थोप लेता है, भीतर संदेह बना रह जाता है। और इसी संदेह को दबाने के लिए और विश्वास को मजबूत करने की उसे हज़ार कोशिशें करनी पड़ती हैं। हजार उपाय करने पड़ते हैं ताकि भीतर का संदेह कहीं फिर से न जाग जाए। सारे धर्म यही करते रहे हैं, जब कि स्थिति सत्य के खोजी की बिल्कुल उलटी होगी। होगी यह कि वह अपने संदेहों को पूरी तरह विकसित करे, ठीक-ठीक विकसित करे, सम्यक संदेह, राइट डाउट ही यात्रा का प्राथमिक बिंदु है, वह ठीक से संदेह करे, संदेह के विज्ञान को समझे, संदेह की पूरी ताकत को समझे और पूरे प्राणों से पूरे प्राणपन से जिज्ञासा करे, पूछे, शक करे, और अगर वह ठीक से संदेह करता चला जाए और पूरी तरह से, और इस संदेह में कहीं भी समझौता न करे, तो एक दिन संदेह की यह खोज ही उसे उन रास्तों पर पहुंचा देगी, यह संदेह की निरंतर खोज ही उन्हें उन तथ्यों पर पहुंचा देगी, जिन पर संदेह नहीं किया जा सकता है।
संदेह की खोज ही असंदिग्ध तथ्यों पर ले जाने वाला मार्ग है, और तब, तब भीतर कोई संदेह नहीं रह जाता, और एक सत्य की ज्योति सारे प्राणों में व्याप्त हो जाती है। दो शब्दों में कहना चाहें, तो मैं ऐसा कहूंगा जो आदमी विश्वास से शुरू करता है उसकी मौत संदेह को लेकर होती है। और जो आदमी संदेह से शुरू करता है, वह अपने जीवन में उस जगह पहुंच जाता है जहां संदेह की कोई जगह नहीं रह जाती।
संदेह से यात्रा करने वाला ही ठीक-ठीक सत्य तक पहुंच पाता है; विश्वास से यात्रा करने वाला तो अंधेरे में भटक जाता है। क्योंकि उसने आंख तो पहले ही बंद कर ली, दर्शन की क्षमता तो उसने पहले ही खो दी, खोज का आग्रह तो उसने पहले ही समाप्त कर दिया; अब तो वह एक मृत लाश की भांति है, एक मुर्दा आदमी की भांति उससे क्या खोज हो सकेगी?
पहला बंधन देखने जैसा है मनुष्य के ऊपर और वह विश्वास का है। आस्तिक भी विश्वास करता है और नास्तिक भी।नास्तिक विश्वास कर लेता है, ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, मोक्ष नहीं है; उसका विश्वास नकारात्मक है। आस्तिक का विधायक है, लेकिन दोनों के विश्वास एक हैं और दोनों अंधे हैं। किसी को यह हक नहीं है कहने का कि ईश्वर नहीं है, जब तक कि वह जान न ले। किसी को यह हक नहीं है सोचने का और मान लेने का कि ईश्वर है, जब तक कि वह पहचान न ले। इसलिए ठीक-ठीक धार्मिक आदमी वह है, जो “हां” और “न” दोनों को अस्वीकार कर देता है और खोज को अंगीकार करता है। जो यह कहता है कि मुझे ज्ञात नहीं है लेकिन मैं जानना चाहता हूं। जो यह नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ईश्वर है, जो यह भी नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ईश्वर नहीं है। ऐसा जो आदमी इस तरह के आग्रहपूर्ण अंधता में पड़ जाता है, उसकी तो खोज वहीं बंद हो गई, समाप्त हो गई। खोज करने वाला चित्त, इंक्वायरी करने वाला चित्त तो खुला होगा, मुक्त होगा, वह कहेगा, मैं नहीं जानता हूं, लेकिन जानना चाहता हूं। मुझे ज्ञात नहीं है, लेकिन मेरे प्राण जानने को आतुर हैं, सत्य मुझे अज्ञात है, इसलिए मैं कैसे कहूं कि क्या है और क्या नहीं है? इतना ही कह सकता हूं निश्चय से अभी कि मैं अज्ञान में हूं।
धार्मिक व्यक्ति की पहली पहचान है कि वह न आस्तिक होगा, न नास्तिक होगा। न वह हिंदू होगा, न मुसलमान होगा।धार्मिक आदमी अज्ञात के प्रति आतुर होगा, जिज्ञासु होगा, पिपासु होगा, और अपने अज्ञान के प्रति सचेष्ट होगा।
मध्य-युग में यूरोप के साधु-संत इस बात पर विचार करते रहे कि एक सुई की नोंक पर कितने फरिश्ते खड़े हो सकते हैं?
लूथर जैसे समझदार आदमी ने यह लिखा है कि मक्खियां शैतान के द्वाराबनाई गई हैं। क्यों?
क्योंकि जब लूथर धर्मग्रंथ पढ़ता था तो मक्खियां उसकी नाक पर आकर बैठ जाती थीं। साफ हैकि मक्खियां धर्म के कार्य में बाधा देने के लिए बनाई गईं; तो भगवान तो नहीं बना सकता, इसको शैतान ने बनाया।
इसपर विवाद चलता रहा कि मक्खियां किसने बनाईं? ईश्वर ने बनाई है कि शैतान ने?
स्वर्ग और नरक के नक्शे बनाए जाते रहे और उन पर विवाद होता रहा कि कौन सा नक्शा ठीक है?
जैनियों का नक्शा ठीक है कि हिंदुओं का नक्शा ठीक है?
स्वर्ग कितनी दूर है जमीन से, कितने योजन, कितने मील? किसका हिसाब ठीक है?
देवताओं की लंबाई कितनी होती है, उम्र कितनी होती है?
इस पर विवाद होते रहे हैं। और यह विवाद करने वाले लोग इतनी गंभीरता से, इतनी सीरियसनेस से ये बातें करते रहे हैं कि सामान्य-जन को ऐसा मालूम पड़ा है कि बहुत जरूरी बातें जिंदगी के बाबत सोची जा रही हैं।
(स्कूल के इंस्पेक्शन में इंस्पेक्टर ने प्रश्न पूछा कि यदि दिल्ली से एक हवाई जहाज कलकत्ता की तरफ उड़ा दो सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से, तो क्या तुम बता सकते हो, मेरी उम्र कितनी है? एक लड़के ने कहा चवालीस वर्ष, क्योंकि इससे आधे बेतुके प्रश्न मेरा बड़ा भाई जो आधा पागल है वह करता है और वह बाईस वर्ष का है)
और फिर इन बातों से, इन विचारों से जो नतीजे निकाले हैं, जैसे उस लड़के ने चवालीस वर्ष की उम्र का नतीजा निकाला।इनसे जो नतीजे निकाले हैं उन पर आम आदमी को कहा गया है कि तुम विश्वास करो। हमने खोज लिया है, तुम विश्वास करो; हमने पता लगा लिया है, तुम विश्वास करो; तुम्हारा काम है विश्वास करने का।
जरूर ये सारे लोग किसी बहुत गहरी अहमन्यता से, किसी बहुत गहरी ईगोइज्म से पीड़ित रहे होंगे जिन्होंने यह कहा है हमने खोज लिया है और तुम विश्वास करो। हम हैं खोजने वाले, हम हैं बताने वाले, तुम हो मानने वाले। दुनिया में कोई मानने वाला नहीं है। हर आदमी जिसे परमात्मा को जानना हो, सत्य को जानना हो, उसे मानने वाला नहीं उसे खुद ही खोजने वाला होना पड़ेगा। कोई दूसरा आदमी बताने वाला नहीं हो सकता। क्योंकि हर बताने वाला आदमी जो दूसरा उसको मान लेता है, दूसरे आदमी को अंधा बनाने में सहयोगी हो जाता है। जब कि खोज के लिए खुली हुई आंखें चाहिए। इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहता हूं अपने विश्वासों की तरफ बहुत खुली आंख से देखें तो आपको पता चलेगा विश्वास झूठे हैं और सीखे हुए हैं, संदेह सच्चा है और अनसीखा हुआ है। वह आपके भीतर है, वह आपके प्राणों में है, वह आपकी आत्मा की ताकत है। संदेह आपकी शक्ति है और विश्वास, विश्वास बिल्कुल उधार ज़बरदस्ती आरोपित बातें हैं, इन उधार विश्वासों के साथ आपकी यात्रा नहीं हो सकती।
आपकी आत्मा की जो अपनी शक्ति है संदेह, संदेह किसी को कोई कभी सिखाता नहीं। संदेह जन्म के साथ जन्म लेता है। विश्वास सिखाए जाते हैं। विश्वास दूसरों से मिलते हैं, संदेह मेरा है। तो मैं संदेह को लेकर अगर चलूं कि यह मेरी ताक़त है। यह मेरी इंक्वायरी है, यह मेरी खोज है, यह मेरा अन्वेषण है, यह मेरी जिज्ञासा है, यह मेरी प्यास है। अगर इसको लेकर मैं चलूं तो, तो शायद मैं जीवन की गहराइयों में उतर सकता हूं, अन्यथा नहीं। दूसरों की बातें लेकर चलूंगा, तो कैसे उतर सकूंगा?
और पहली भूल है, और वह है विश्वास के द्वारा आंखों के बंद हो जाने के लिए राजी हो जाना। मत राजी हों, इनकार करें, जो आदमी इनकार नहीं करता वह आदमी जिंदा नहीं है, इनकार करें चारों तरफ से आते हुए प्रभाव को, जो कहता है कि विश्वास करो और भीतर की जिज्ञासा को दबा देना चाहता है, भीतर की आत्मा को बंद कर देना चाहता है। भीतर के प्राणों को परतंत्र कर देना चाहता है, चारों तरफ के प्रभाव से सजग होना जरूरी है और उसके प्रति एक गहरा इनकार, एक पूर्ण इनकार मन के भीतर स्पष्ट होना चाहिए कि मैं किसी भी प्रभाव के कारण स्वीकार नहीं करूंगा। उस दिन तक जब तक कि मैं न जान लूं। ऐसी जिसके भीतर जिज्ञासा होती है, ऐसी अदम्य जिसके भीतर प्यास होती है, वह ज़रूर जानने में समर्थ हो जाता है। यह पहली बात है।
पहली- विश्वास को हटा दें और दूसरी बात, विचार को भीतर जन्म दें।
लेकिन विचार का जो दूसरा सूत्र है, विचार को जन्म देनेकी जो बात है, वह भी बहुत सोच लेने की है। विचार के आधार पर या विचार के नाम पर हम एक बड़ी अजीब बात कर लेते हैं, हम विचार को जन्म देने के नाम पर विचारों को संग्रह कर लेते हैं और सोचते हैं हमारे भीतर विचार का जन्म हो गया। थिंकिंग के नाम पर हम थॉट्स को इकट्ठा कर लेते हैं।
विचार करने की क्षमता के नाम पर हम विचारों का जमघट इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि हम विचारपूर्ण हो गए। विचारशीलता में और विचार के संग्रह में बुनियादी भेद है।बल्कि सच्चाई यह है जो आदमी जितने विचारों को इकट्ठा करने के लिए उत्सुक हो जाता है समझ लेना उसके भीतर विचार की क्षमता उतनी ही कम है। वह उसी क्षमता की कमी की पूर्ति इस भांति विचारों को इकट्ठा करके कर लेने कीकोशिश कर रहा है। विचारना, विचार की शक्ति हमारे भीतर होनी चाहिए, विचारों का संग्रह नहीं।
आपका दिमाग क्या करता है?
जानकारी दिमाग में भर दी जाती है, दिमाग उत्तर देने लगता है। मैंने आपसे पूछा, आपका नाम, आप फौरन बोले, राम।
क्या आप सोचते हैं कि आपने यह बहुत विचारपूर्ण काम किया?
आपको बचपन से भर दिया गया की आपका नाम राम, आपका नाम राम, यह आपकी स्मृति में जाकर टंकित हो गया। यह टेप रिकॉर्ड हो गया। बाहर से प्रश्न आया, आपका नाम, भीतर से स्मृति बोली, राम। आप समझे कि आप विचारक हो गए। यह काम तो मशीन कर देती है। इसमें कोई विचारशील हो जाने का सवाल नहीं है। विचारशीलता विचारों का संग्रह नहीं है।
फिर विचारशीलता क्या है?
अगर विचारशीलता विचारों का संग्रह नहीं है, तो विचारशीलता क्या है?
विचारशीलता है जीवनके प्रति एक सचेतना, जीवन के प्रति एक जागरूकता, जीवन के प्रति निरंतर प्रतिक्षण जागा हुआ होना। क्योंकि जीवन में तो प्रतिक्षण चारों ओर से हमारे ऊपर घटनाएं घट रही हैं, आघात हो रहे हैं, इसलिए जो आदमी प्रतिक्षण जागरूक रहता है, उनके उत्तर उसके भीतर से आते हैं।
सुभाष बाबू के बड़े भाई थे, शरद चंद्र। वह ट्रेन में सफर करते थे। बाथरूम में स्नान करने को गए, सांझ का वक्त, अंधेरा हो गया। वह स्नान करते थे, उनकी कीमती घड़ी हाथ से छूट गई और संडास के रास्ते नीचे ट्रेन के गिर गई। बाहर आए, उन्होंने चेन खींची, गाड़ी रुकी, लेकिन रुकते-रुकते तो कोई एक मील का फासला तय हो गया।
अंधेरी रात, ड्राइवर, कंडक्टर ने और गार्ड ने कहाः बहुत मुश्किल है घड़ी को खोजना, एक मील पीछे न मालूम घड़ी कहां पड़ी हो, इसअंधेरी रात में उसे कैसे खोजा जा सकता है?
शरद चंद्र ने कहाः नहीं, कठिनाई नहीं होगी, मैंने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे ही डाल दी। तो मेरी सिगरेट जहां पड़ी होगी उसके ठीक एक फीट के घेरे में घड़ी होनी चाहिए। और जलती हुई सिगरेट है वह अंधेरे में भी दिखाई पड़ जाएगी, आप आदमी भेजें। वह घड़ी मिल गई, वह जलती सिगरेट के एक फीट पास पड़ी हुई थी।
इस आदमी की घड़ी गिरी, आपकी घड़ी गिरती आप क्या करते?
शायद चिल्लाते कि अरे मेरी घड़ी गई, बाहर आकरबताते कि मेरी घड़ी गिर गई, चेन खींचते। लेकिन तब तक गाड़ी बहुत आगे निकल चुकी होती। इस आदमी ने बड़ी विचारशीलता का प्रमाण दिया। इसने बड़ी जागरूकता का प्रमाण दिया। घड़ी गिरी एक घटना खड़ी हो गई, एक समस्या खड़ी हो गई, इस आदमी ने होश से देखा और एक क्षण में उसे यह बात दिखाई पड़ गई कि घड़ी नहीं खोजी जा सकेगी, इसने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे डाल दी। यह एक क्षण में हो गया, और यह बात स्मृति से नहीं हुई, क्योंकि जिंदगी में यह पहला ही मौका था, इसकी कोई मेमोरी नहीं थी, इसकी कोई स्मृति नहीं थी। यह कोई रोज-रोज घड़ी गिरान का काम नहीं हुआ था, यह किसी किताब में पढ़ा नहीं था कि घड़ी गिर जाए तो जलती हुई सिगरेट पीछे डाल देना।
अब आप डाल सकते हैं लेकिन वह विवेकशीलता नहीं होगी। यह तो आदमी को तत्क्षण उसके जागे हुए होने का सबूत था। एक घटना घटी है चित्त पूरा जागा हुआ है। और मार्ग खोज लेता है। विचारशीलता का अर्थ हैः प्रतिक्षण जागे हुए होना। विचारों का संग्रह नहीं है। इसलिए पंडित और विचारशील दो अलग बातें हैं। पंडित तो अक्सर जड़बुद्धि होता है, बहुत कुछ उसे याद होता है। लेकिन जिंदगी जहां समस्या खड़ी करती है, वहां वह अपनी स्मृति में खोजने लगता है। वहां उसके सामने सीधा विवेक कोई उत्तर नहीं देता।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा रूसी डाक्टर था। वह बच्चों को चिकित्सा विज्ञान में जो अंतिम डिग्री मिलती है रूस में उसकी परीक्षा ले रहा था।
उसने एक युवक, जिसकी सारी परीक्षाएं हो गई थीं, और अंतिम उसकी मुखाग्र परीक्षा हो रही थी, को पूछा:इस-इस तरह का मरीज है और यह-यह दवा है, कितनी दोगे?
उसने कुछ उत्तर दिया, उत्तर देकर वह बाहर चला गया। दरवाजा खोल कर वह बाहर हो रहा था तब उसे ख्याल आया कि इतनी मात्रा में देने से तो वह, पायजन है, वह मरीज मर जाएगा, मात्रा ज्यादा हो गई, वह वापस लौटा और उसने कहा, माफ करिए, मैंने थोड़ा ज्यादा बता दिया, आधी देंगे।
उस डाक्टर ने कहाः बाहर हो जाओ, मरीज मरचुका है। सवाल थोड़ी है यह कोई, तुम दे चुके दवा, मरीज मर चुका, जिंदगी रुकी थोड़ी रहेगी तुम्हारे लिए कि तुम फिर लौटकर आ गए और कहने लगे कि वह, जरा ज्यादा मात्रा हो गई, थोड़ा कम देंगे। वह विद्यार्थी असफल हो गया।
उसके उस परीक्षक ने कहा कि मरीज मर चुका है, आप लौट जाइए, बात खत्म हो गई। जिंदगी रुकती नहीं है।
जिंदगी रुकती नहीं है तो इसका मतलब क्या हुआ?
इसका मतलब हुआ कि प्रतिक्षण हमें जागा हुआ होना चाहिए। जब जिंदगी सामने हो तब भीतर होश होना चाहिए। विचार का अर्थ हैः अत्यंत होशपूर्वक जीना। विचार का संग्रह नहीं, निरंतर सावधानी से जीना। निरंतर जागे हुए जीना वह विचार का अर्थ है।
तो दूसरा सूत्र हैः चित्त निरंतर विचारपूर्ण होना चाहिए। विचारों से भरा हुआ नहीं, बल्कि विचारशीलता से भरा हुआ।
कैसे यह चित्त विचारशीलता से भरेगा?
उसके लिए तीसरा सूत्र, अंतिम सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है, शायद यह देखने में बात विरोधी मालूम पड़ेगी, वही व्यक्ति सर्वाधिक विचारशील होता है, जिसके चित्त में सबसे कम विचार होते हैं। जिसके चित्त में जितने कम विचार होते हैं उतनी ही ज्यादा विचारशीलता हो सकती है। और जब विचार बिल्कुल नहीं होते हैं तो चित्त परिपूर्ण विचार में उपस्थित हो जाता है, मौजूद हो जाता है। जब बिल्कुल थॉटलेस होता है मस्तिष्क, जब चित्त बिल्कुल विचार से शून्य होता है, तभी विचारशीलता अपनी परिपूर्णता पर होती है। यह बात देखने में उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन इस बात से बड़ा और कोई सत्य नहीं है। जब विचार की कोईतरंग चित्त पर नहीं होती, तो चित्त सर्वाधिक रूप से जागरूक होने में समर्थ होता है। और तब जीवन से सीधा रिस्पांस होता है, तब जीवन से सीधा संबंध होता है। तब जीवन उधर एक बात खड़ी करता है, और इधर मन उसके उत्तर से शब्दोंमें नहीं बल्कि समस्त, समग्ररूप से उसकी चुनौती को स्वीकार करने में, और उसके निदान हल करने में समर्थ हो जाताहै।
जैसे एक दर्पण हो, और दर्पण के ऊपर अगर धूल पड़ी हो, तो फिर दर्पण बाहर जो है उसके प्रतिफलन में समर्थ नहीं रह जाता । धूल न हो तो दर्पण के सामने कुछ भी आ जाए दर्पण पूरा प्रतिफलन करता है। ऐसा ही चित्त जब विचार की धूल से बिल्कुल मुक्त होता है तो एक दर्पण बन जाता है और जीवन को पूरे अर्थों में पूरी सर्वांगीणता में प्रतिफलित करता है, रिफ्लेक्ट करता है।
और तब हमारे भीतर से जो बाहर का जगत है उससे एक अंतर्संबंध, भीतर और बाहर के बीच एक सेतु बन जाता है, एक ब्रिज बन जाता है, और तभी हम जान पाते हैं कि समग्रता क्या है?
समग्रता में ही सत्य है। तब हम व्यक्ति नहीं रह जाते, विचारों का घेरा हमें व्यक्ति बनाता है और निर्विचार की स्थिति हमें अव्यक्ति से जोड़ देती है, वह जो सबके भीतर छिपा है उससे एक कर देती है। और वहीं सत्य का, अमृत का, परमात्मा का या कोई और नाम हम उसे दें, या परममुक्ति का या मोक्ष का पहला अनुभव शुरू होता है।
तो यह तीसरा सूत्र हैः निर्विचारना। और निर्विचारना से विचार की क्षमता, वैचारिकता, विचार की शक्ति, होश और जागरूकता का जन्म होता है। इस तीसरे सूत्र पर थोड़ी बात कर लेनी जरूरी है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण भी है।
विचार से मुक्ति, निर्विचारना, मन से विचारों की सारी लहरों का शांत हो जाना कैसे हो सकता है?
किस भांति, क्या रास्ता हो सकता है?
क्या दिशा हो सकती है?
कौन सा आयाम हो सकता है जहां सारे विचार खो जाएं?
और एक साइलेंस, और एक मौन भीतर उपस्थित हो जाए। इस तीसरे सूत्र को हल करने के लिए दो छोटे सूत्र समझ लेने होंगे।
एक–मनुष्य मन के प्रति बिल्कुल सोया हुआ है। दूसरा- जिस मात्रा में सोया हुआ होगा उसी मात्रा में विचारों की भीड़ उसके मनपर दौड़ती रहेगी।
क्या आपको ख्याल है जब आप रात सोते हैं तो सारी रात सपनों से भर जाती है?
और क्या आपकोयह भी पता है वे सपने ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे बिल्कुल सच हों?
कभी आपको सपने में ऐसा पता चला क्या कि जो मैं देख रहा हूं वह झूठा है?
सपनें में जो भी आप देख रहे हैं सभी सच है। ऐसी एब्सर्ड बातें भी सच हैं जिनको आप जाग कर कहेंगे कि क्या मैं पागल था जो इसको मैं सच मानता रहा। यह बात तो हो ही नहीं सकती। लेकिन सपने में उस पर शक पैदा नहीं होता। क्यों?
क्योंकि सपने में आप बिल्कुल सोए हुए हैं। सोया हुआ व्यक्ति जागरूक नहीं है कि क्या सत्य है और क्या असत्य है, क्या वास्तविक है, क्या काल्पनिक है। जिस मात्रा में सोया हुआ है उसी मात्रा में फिर सभी सच हैं जो भी चल रहा है। सभी सच हैं। और मन पर जो भी आ रहा है वह सभी ठीक प्रतीत होता है।
लेकिन सुबह आप जागते हैं, और जागते से हंसने लगते हैं कि यह सब क्या चला, यह सब सपने में क्या हुआ?
मैं कहां-कहां की यात्रा किया, कहां-कहां गया, और पड़ा हूं अपने घर। यह सब झूठा था। यह सब कल्पना थी।
यह आपको कैसे पता चला?
आप सोए हुए थे, अब आप जाग गए हैं। इतना फर्क पड़ गया है।और इस फर्क ने बुनियादी फर्क ला दिया। जो सपने सच मालूम होते थे वे झूठ मालूम होने लगे। लेकिन जिसे हम नींद से जागरण कहते हैं वह भी पूरा जागरण नहीं है। एक और जागरण है, इसके भी ऊपर एक जागरण है, और जिस दिन वह जागरण किसी को उपलब्ध होता है उस दिन जिस जिंदगी को हम इस जागने में सच समझे हुए थे, जिन विचारों को, जिन सपनों को, वे भी एकदम झूठे मालूम पड़ते हैं। तब ज्ञात होता है कि वह भी एक सपना था। वह भी एक सपने से ज़्यादा नहीं था। और चूंकि हम सोए हुए थे इसलिए वह हमें सच मालूम पड़ रहा था, उसमें कोई सच्चाई न थी।
यह बात आप सपने में भी तो मौजूद थे तब पता क्यों न चली?
चीन में एक बादशाह, एक ही लड़का था उसका, वह मरणशय्या पर पड़ा था। बूढ़ा बादशाह, एक ही लड़का, वह मरने के करीब है। चिकित्सक इनकार कर चुके कि बच नहीं सकेगा। वह रात भर उसके पास बैठा रहा। दो रात बीत गईं, तीसरी रात आ गई है, शायद आज सुबह नहीं हो सकेगी। लड़के की जिंदगी की ज्योति बुझी-बुझी मालूम होती है। तीन दिन का जागा हुआ राजा, बूढ़ा आदमी, वह उसकी खाट के ऊपर ही सिर रख कर सो गया। सोते ही उसने एक सपना देख, उसने सपना देखा वह सारे जगत का सम्राट हो गया है। एक छोटे से राज्य का सम्राट था, सपने में देखा सारी पृथ्वी का राजा हो गया। सारी पृथ्वी उसके अंतर्गत है। चक्रवर्ती सम्राट हो गया है। बारह उसके लड़के हैं, बहुत सुंदर, बहुत युवा। बहुत सुंदर उसकी पत्नियां हैं। सब सुंदर है, सब सुखद है, और तभी वह जो सामने लड़का उसका सोया था, मरणासन्न, वह मर गया। महल में रोना-पीटना होने लगा। उसकी पत्नी आई छाती पीट कर चिल्लाई कि उसकी नींद टूट गई। नींद टूट गई तो वह सारा राज्य, वह सपना, सारी पृथ्वी का राज्य, वे बारह सुंदर युवक पुत्र, वे सुंदर रानियां, वे सब समाप्त हो गए। आंख खुली तो देखा कि वह लड़का समाप्त हो गया है।
वह हंसने लगा। उसकी पत्नी हैरान हो गई। उसने कहाः आप हंसते हैं?
और लड़का चल बसा। वह बोला मैं किन लड़कों के लिए रोऊं?
बारह लड़के और थे, वे भी चल बसे, एक बड़ा राज्य था, वह भी छिन गया। तुमसे बहुत सुंदर पत्नियां थीं, वे अब नहीं हैं। मैं उनके लिए रोऊं या इस एक लड़के के लिए जो चल बसा है?
और मजा यह है कि जब मैं सो गया था, तो न यह लड़का मेरे लिए था, न तुम थी, न यह राज्य था। और एक और राज्य था, और लड़के थे, और रानियां थीं। अब जब मैं जाग आया हूं, तो वह राज्य नहीं है, वे लड़के नहीं हैं, वे रानियां नहीं हैं। अब यह लड़का है और तुम हो, और रात मैं फिर सो जाऊंगा। और फिर कोई दूसरे सपने में जाग जाऊंगा।
उसने राजा ने कहाः मैं किसके लिए रोऊं यह नहीं समझ पा रहा हूं?
इसलिए मुझे हंसी आ गई, क्योंकि जिंदगी में यह पहला मौका है कि मेरे सामने विकल्प खड़ा हुआ है कि मैं किसके लिए रोऊं?
उन लड़कों के लिए जो बहुत सुंदर थे और बारह थे, उस राज्य के लिए जो बहुत बड़ा था। या इस लड़के के लिए जो एक था, अकेला था, और इस छोटे से राज्य के लिए, और तुम्हारे लिए, किसके लिए रोऊं?
एक और जागरण है, जहां हम जिंदगी के विचारों के घिरे हुए जाल से और ऊपर उठते हैं। वह जागरण पैदा किया जा सकता है। जागने की निरंतर सतत प्रक्रिया से ही वह जागरण पैदा हो जाता है। हमने जागने की कभी कोई कोशिश ही नहीं की। कभी आकस्मिक जागने के कोई क्षण आते हैं, आप रास्ते में जाते हो, कोई छुरा लेकर आपके सामने खड़ा हो जाए, एक क्षण को आपके भीतर एक अवेकनिंग पैदा होगी, एक क्षण को आप पूरी तरह जाग जाएंगे, जैसे सारी नींद टूट गई, सारे विचार खत्म हो जाएंगे, सारे सपने छिन जाएंगे, सिर्फ एक तथ्य सामने खड़ा रह जाएगा और आपकी चेतना एक दर्पण बन जाएगी–एक क्षण को। फिर बात खत्म हो जाएगी। कोई घर में मर जाएगा, कोई बहुत प्रियजन, उसकी मृत्यु एक चोट कर देगी, और भीतर एक जागरण फलित होगा, एक क्षण को आप ठिठके रह जाएंगे और फिर सब विलीन हो जाएगा। जिंदगी में कभी-कभी किन्हीं क्षणों में जागरण पैदा होता है, लेकिन इस जागरण को सतत सावधानी से भीतर जगाया जा सकता है। चलते, उठते, बैठते यह पैदा किया जा सकता है।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे मेरी यह बात समझ में आ जाएगी।
जापान में एक राजकुमार को उसके गुरु के घर भेजा गया। भेजा गया था जागरण सीखने के लिए। और जिसके पास भेजा गया था, वह अजीब गुरु था। उसने अपने घर के सामने तख्ती लगा रखी थी कि यहां तलवार चलानी सिखाई जाती है। राजाकुमार बहुत हैरान हुआ।
अपने पिता पर उसको हंसी आई, किस गुरु के पास भेजा है जो तलवार चलाना सिखाता है, जागरण से इसका क्या संबंध?
वह उस गुरु के पास गया। उस गुरु ने कहाः आए हो ठीक, लेकिन जल्दी मत करना। जो हम सिखाते हैं वह जल्दी नहीं सीखा जा सकता। और अब तुम मुझसे यह भी मत कहना कभी कि कब सिखाना शुरू करेंगे, कब पाठ शुरू होगा। वह जब मुझे मर्जी आएगी तब पाठ शुरू हो जाएगा। राजकुमार रहा, कुछ दिन बीते, एक दिन अचानक पीछे से गुरु ने आकर लकड़ी की तलवार से उसके ऊपर हमला कर दिया। वह तो घबड़ा ही गया कि यह क्या हो रहा है?
यह कैसा पाठ हो रहा है?
वह चौंक कर खड़ा हो गया, और उसके सिर में चोट आ गई।
उसने कहाः आप यह क्या करते हैं, आपका दिमाग तो ठीक है?
उस गुरु ने कहाः पाठ शुरू कर दिया गया है। अब कभी भी, किसी भी वक्त मैं हमला कर दूंगा। तुम्हें तैयार रहना पड़ेगा। तुम होश से रहना। कोई भी वक्त तुम खाना खा रहे हो और हमला हो सकता है; तुम किताब पढ़ रहे हो, हमला हो सकता हैः तुम स्नान कर रहे हो, हमला हो सकता है। कोई भी क्षण, अब तुम्हारी शिक्षा शुरू हो रही है।
यह बड़ी अजीब बात थी, और बड़ी अजीब शिक्षा थी। रोज दिन में दस-पांच दफा हमला होने लगा। हड्डी-पसली उसे लड़के की चोट खाने लगीं। राजकुमार था, कभी ऐसी चोटें खाई भी नहीं थी। न मालूम कब कुछ भी काम करता हो और पीछे से हमला हो जाता। लेकिन एक सप्ताह में ही उसे एक नई बात का अनुभव हुआ, भीतर एक तरह की सावधानी तैयार होने लगी। चौबीस घंटे जैसे भीतर कोई सचेत रहने लगा, सतर्क रहने लगा। होता है हमला, अभी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, कोई भी क्षण हमला बन सकता है। एक महीना बीतते-बीतते तो वह हैरान हो गया। उसके भीतर कोई बलशाली चेतना खड़ी हो गई। हमला होता था, और हमले के साथ ही उसका हाथ अनजाने उठ जाता, हमले को रोक लेता । अब चोट खानी मुश्किल हो गई थी। जैसे अपने आप सारा शरीर, सारी चेतना हमले से बचाव करने लगी थी। वह काम कर रहा है और पीछे से हमला होता है और हाथ उठ जाएगा और हमला रोक लिया जाएगा। एक महीने तक सतत सावधानी का यह परिणाम हो जाना स्वाभाविक था।
तीन महीने बीत गए अब गुरु को चोट पहुंचानी कठिन हो गई थी। कैसे भी असावधानी के क्षण में हमला किया जाए, सारा शरीर, सारा प्राण रक्षा कर लेता था। तीन महीने बाद गुरु ने कहाः अब सोते में भी सावधान रहना। नींद में भी हमला किया जा सकता है। यह और कठिनाई थी। जागते तो जागते ठीक था, नींद में हमला होगा! और नींद में हमले होने शुरू हो गए। और राजकुमार सो रहा है और कभी भी रात में दो-चार बार गुरु हमला कर देगा। पहले तो उसे बड़ी मुश्किल हुई, चोट फिर पड़ने लगी शरीर पर। लेकिन चेतना एक ही महीने में और गहरी हो गई। नींद में भी कोई जैसे बोध भीतर मौजूद रहने लगा कि हमला हो सकता है। एक मां सोती है, बच्चा रोता है, घर भर के लोगों को पता नहीं चलता, उसका हाथ चला जाता है और बच्चे को समझा लेता है और सुला देता है। शायद उसे भी पता नहीं। लेकिन एक भीतर एक सावधानी चल रही है।
हम इतने लोग सब सो जाएं आज रात और एक आदमी आए और कहे, राम! राम! सारे लोग सोए रहेंगे, जिसका नाम राम है वह आंख खोल कर कहेगा, क्या बात है, कौन बुलाता है? सबके कानों में आवाज पड़ जाएगी राम की, लेकिन बाकी की राम के प्रति कोई सावधानी नहीं है, उस आदमी की है। राम के प्रति उसकी सावधानी है। तो नींद में भी एक चेतना काम करेगी।
एक महीना बीतते-बीतते नींद में भी हमले से रक्षा होने लगी। नींद में भी वह हाथ उठ जाता, नींद में भी वह बचाव कर लेता , सोता हुआ। तीन महीने बीत गए, पूरे छह महीने बीत गए थे। अब तो बड़ी अजीब बात हो गई थी, हमले की तो बात दूर गुरु की पगध्वनि भी सुनाई पड़ जाती। वह आ रहा है इसका भी पता चल जाता, हमला करना तो बहुत दूर।साल बीत गया। उस युवक को अब चोट पहुंचाना कठिन था।
एक दिन झाड़ के नीचे बैठे उसे ख्याल आया कि यह बूढ़ा मुझे काफी चोटें पहुंचा चुका। मैंने कभी ख्याल ही नहीं किया।आज मैं भी तो इस पर हमला करके देखूं। यह भी सावधान है या मुझको ही सावधान बनाए चला जा रहा है।
दूर उसका गुरु बैठा था, दूर दरख्त के नीचे, वहीं से गुरु बोलाः ठहर! ठहर! मैं बूढ़ा आदमी हूं, हमला मत कर देना! अभी तो यह बैठा सोंच ही रहा था, उसने कहाः ठहर! ठहर!
वह बहुत हैरान हो गया! उसने कहाः मैंने तो सिर्फ सोचा भर है, अभी हमला कहां किया?
गुरु ने कहाः और थोड़े दिन ठहर, जब और तेरी सावधानी बढ़ेगी, तो पगध्वनि नहीं, विचार की भी ध्वनियां भी सुनाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। वे भी सूक्ष्म तरंगें हैं। जो उतना सावधान होगा, वह उनके प्रति भी जाग जाता है।
वह सावधानी में दीक्षित होकर वापस लौटा। उसके गुरु ने उसे तलवार चलानी कभी नहीं सिखाई। वापस लौटा, उसके पिता ने कहाः तुम क्या सीख कर आए हो?
उसने कहाः एक बड़ी अजीब बात, मैं सावधानी सीख कर आया, लेकिन अब मैं किसी भी तरह के तलवार बाज से जूझ सकता हूं, क्योंकि तलवार चलाने वाला सोचे इसके पहले कि कहां हमला करूँ, मेरी सुरक्षा हो जाएगी। अब मैं सावधान हूं। मैंने तलवार चलानी नहीं सीखी, मेरा गुरु अजीब था, उसने मुझे तलवार चलाना तो ठीक कभी मुझे तलवार पकड़नी भी नहीं बताई, उसने कहा, तलवार पकड़ कर क्या करेगा, उससे क्या फायदा है? सवाल तो असल है कि तू जागरूक है तो तेरे ऊपर हमला नहीं हो सकता, हमले के पहले तेरी चेतना बचाव कर लेगी। तू तैयार है।
जीवन में हम सब भी अगर सावधानी से चलना, उठना, बैठना, सोना करने लगें, तो कोई तलवार चलानी सीखने की किसी गुरु के पास जाने की जरूरत नहीं है। अगर हम उठते-बैठते सावधानी का प्रयोग करने लगें, जैसे हमेशा सचेत रहने लगें, जैसे हमेशा इस बात का हमेशा स्मरण बना रहने लगे मैं क्या कर रहा हूं?
कैसे उठ रहा हूं?
कैसे बैठ रहा हूं?
कैसे चल रहा हूं?
एक-एक कदम, एक-एक श्वास हमारी होश से चलने लगे, हम उसके प्रति जागे रहने लगें, तो भीतर एक जागरूकता का जन्म निश्चित हो जाता है। और यह जागरूकता एक अदभुत परिणाम लाती है। इस जागरूकता के पैदा होते ही विचारों की भीड़ विदा हो जाती है, सपनों की भीड़ विदा हो जाती है। एक नया जागरण खड़ा हमने जिस चेतना के सामने कोई विचार नहीं टिकता, मन एकदम मौन और शांत हो जाता है, एक साइलेंस, एक मौन, एक शांति उत्पन्न होगी। इसी शांति में, इसी मौन में जाना जा सकता है वह जो है, पहचाना जा सकता है वह जो सत्य है, पहचाना जा सकता है वह जो प्राणों का प्राण है। इसी शांति में, इसी मौन में, इसी जागरूकता में जीवन का अर्थ और कृतार्थता उपलब्ध होगी। मृत्यु के बाहर पहुंच जाता है मनुष्य, दुख और पीड़ा के ऊपर उठ जाता है। और पहली बार परिचित होता है आनंद से, उस आनंद का नाम ही प्रभु है। उस आनंद तक प्रत्येक के लिए जाने का मार्ग है। लेकिन कोई दूसरे का बनाया हुआ मार्ग हमारे लिए काम नहीं आ सकता। खुद का मार्ग ही, खुद की जागरूकता का मार्ग ही प्रत्येक को निर्मित करना होता है।
-ओशो, अमृत वर्षा, चैप्टर #1 सत्य का दर्शन #2 शून्य का संगीत
मेरे सुझाव :-
द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!
लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। (और देखा देखी में मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति को खो रहा है, जबकि जीवन उस मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति खोजने के लिए ही मिला है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।
लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।
अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।
किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!
अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।
अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।
तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।–ओशो ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है, और जिससे लाभ होता दिखे उसका नियमित जीवन में अभ्यास किया जा सकता है। (इसे ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 “मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो” से लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें।))
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally posted at https://philosia.in on 05th December, 2024