क्या हम सच ही दुख को जानते हैं?
सोशल मीडिया पर लाइक नहीं मिलना, कम लोगों द्वारा फॉलो करना, कंटेंट का वायरल नहीं होना भी हमारी व्याख्या के कारण भोगे जाने वाले दुख हैं।
13 अगस्त 1973, शाम 7:00 बजे ओशो मुंबई (तब बॉम्बे) के पाटकर हॉल में ताओ उपनिषद पर अपने शिष्यों के साथ चर्चा में उनके दुख पर पूछे गए प्रश्न सहित अन्य प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं जिसे ताओ उपनिषद भाग चार के 14 वें अध्याय के रूप में ‘#78 मैं अंधेपन का इलाज करता हूं’ के टाइटल से संकलित किया गया है। मेरे अनुभव से मैंने कोष्ठक में अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।
पहला प्रश्न:
ओशो, हम दुख जानते हैं; बुद्ध आनंद जानते हैं। क्या हम सच ही दुख को जानते हैं? यदि हम सच ही दुख को जानते हैं तो क्यों कर आनंद की दिशा में नहीं जाते?
ओशो-
निश्चय ही, जो दुख को जान लेगा वह दुख से मुक्त होना शुरू हो जाता है। हम दुख को भोगते हैं, जानते नहीं। भोगना जानना नहीं है। हमारा भोगना भी मूर्च्छित, सोया हुआ, बेहोश है। और इस बेहोशी का लक्षण, बुनियादी लक्षण उसे समझ लेना जरूरी है। हम दुख भोगते भी हैं तो हमें यह स्मरण नहीं आता कि हम सुख की तलाश में दुख भोगते हैं। चाहते तो हम सुख हैं, मिलता दुख है।चाहते तो हम स्वर्ग हैं, उपलब्ध जो होता है वह नरक है। और जो सुख को चाहेगा वह दुख भोगेगा ही। सुख की चाह से ही दुख का जन्म है।
यदि हम समझ जाएं कि हम दुख भोग रहे हैं, और यह भी समझ जाएं कि क्यों भोग रहे हैं, और दुख क्या है, तो हम सुख की चाह छोड़ देंगे। सुख की चाह के छूटते ही दुख से मुक्ति होनी शुरू हो जाती है। दुख है इसलिए कि सुख की मांग है। इसलिए जितनी ज्यादा सुख की मांग होगी उतना ज्यादा दुख होगा।
बहुत आश्चर्य की घटना है कि दीन-दरिद्र इतने दुखी नहीं होते हैं जितने समृद्ध और धनी हो जाते हैं। क्योंकि दीन और दरिद्र की सुख की बहुत मांग नहीं होती। वह सोच भी नहीं सकता बहुत सुख के लिए, स्वप्न भी नहीं देख सकता बहुत सुख के लिए। उसके सुख की मांग उसके दायरे में होती है। लेकिन जिसके पास सारी सुविधाएं हैं, उसकी सुख की मांग असीम हो जाती है। उसके पास सब है; सुख को वह खरीद सकता है। तो मांग भी स्वभावतः खड़ी हो जाती है। इसलिए धनी जितने दुखी होते हैं उतने दरिद्र दुखी नहीं होते।
दरिद्र कष्ट में हो सकते हैं, लेकिन दुख में नहीं होते। धनी कष्ट में नहीं होते, लेकिन महादुख में होते हैं। कष्ट तो भौतिक अभाव है। एक भूखा आदमी है, कष्ट में है। एक नंगा आदमी है, सर्दी है, गर्मी है; कष्ट में है। एक बीमार आदमी है, दवा का इंतजाम नहीं; कष्ट में है। लेकिन एक भरा पेट आदमी है; कपड़े हैं, दवा है, सुविधा है, सब कुछ है, और भीतर पाता है कि सब व्यर्थ है; कुछ सार नहीं, कुछ उपलब्ध नहीं हो रहा। बाहर सब है; भीतर खालीपन है। यह आदमी दुख में है। दुख समृद्धि का लक्षण है। इसलिए दुखी होना हो तो समृद्ध होना जरूरी है। और दुख का अनुभव न हो तो हमारी सुख की वासना नहीं छूटती।
दुख के प्रगाढ़ अनुभव से ही यह प्रतीति होनी शुरू होती है कि दुख क्यों है। हमने विपरीत मांगा है। जो हम मांगते हैं, न मिले, तो दुख पैदा होता है। और मजा तो यह है कि मिल जाए तो भी सुख पैदा नहीं होता। जीवन की सारी जटिलता और पहेली यही है कि जो हम चाहते हैं, मिल जाए, तो सुख नहीं मिलता; और न मिले तो दुख मिलता है। धन चाहते हैं; मिल जाए तो धन हाथ में आ जाता है, लेकिन सुख हाथ में नहीं आता। महल चाहते हैं, मिल जाए; राज्य चाहते हैं, साम्राज्य चाहते हैं, मिल जाए; मिल गया बहुत लोगों को।
लेकिन सिकंदर ने कहा है कि मैं खाली हाथ मर रहा हूं; मेरे हाथ खाली हैं। इतना बड़ा साम्राज्य हो और हाथ खाली हों; क्या अर्थ होगा इसका? साम्राज्य तो मिल गया, लेकिन जिस सुख का सपना संजोया था वह पूरा नहीं हुआ। वह अभी भी खाली का खाली है। जो चाहें वह मिले तो सुख नहीं मिलता; सिर्फ ऊब पैदा होती है। और न मिले तो दुख पैदा होता है। सुख की वासना के दो छोर हैं। मिलने वाला आदमी ऊबा हुआ होता है। इसलिए धनी आदमी बोर्डम महसूस करते हैं, ऊबे हुए हैं, त्रस्त हैं। कुछ सूझता नहीं कि जीवन में क्या अर्थ है, क्या रस है!
जिन्हें नहीं मिल पाता, न मिलने की पीड़ा सताती है। यह दिखाई पड़ने लगे कि दुख कोई बाहरी घटना नहीं है; कष्ट बाहरी घटना है। स्मरण रखें, कोई दूसरा आदमी चाहे तो आपको कष्ट दे सकता है, दुख नहीं दे सकता। दुख तो आप ही अपने को दे सकते हैं। वह निजी घटना है। कष्ट दूसरे पर निर्भर है। बुद्ध को भी किसी ने जहर दे दिया-भूल से सही-तो भी कष्ट तो दिया। शरीर पीड़ित हुआ; मृत्यु भी उसी घटना से घटी। लेकिन बुद्ध को कोई दुख नहीं दे सकता है। कष्ट बाहर से आता है; दुख भीतर का दृष्टिकोण है। इसलिए कष्ट से भी हम दुख पा सकते हैं; और चाहें तो कष्ट से भी दुख न पाएं। क्योंकि वह भीतर की व्याख्या है।
बुद्ध दुख को भी दुख की भांति नहीं लेते; कष्ट को भी दुख की भांति नहीं लेते। इससे विपरीत भी होता है। हम सुख को भी दुख की भांति ले सकते हैं। क्योंकि वह हमारी व्याख्या पर निर्भर है।
मैंने सुना है, अमरीका के एक महानगर में एक होटल का मालिक अपने मित्र से रोज की शिकायतें कर रहा था कि धंधा बहुत खराब है, और धंधा रोज-रोज नीचे गिरता जा रहा है; होटल में अब उतने मेहमान नहीं आते। उसके मित्र ने कहा, लेकिन तुम क्या बातें कर रहे हो?
मैं तुम्हारे होटल पर रोज ही नो वेकेंसी की तख्ती लगी देखता हूं-कि जगह खाली नहीं है।
उसने कहा, वह तख्ती छोड़ो एक तरफ। आज से चार महीने पहले कम से कम सौ ग्राहकों को रोज वापस लौटाता था, अब मुश्किल से पंद्रह-बीस को लौटा रहा हूं। धंधा रोज गिर रहा है।
आदमी की व्याख्याएं हैं। धंधा उतना ही है, लेकिन ग्राहक कम लौट रहे हैं, इससे भी पीड़ा है। धंधे में रत्ती भर का फर्क नहीं पड़ा है, लेकिन वह आदमी दुखी है। और उसके दुख में कोई शक करने की जरूरत नहीं, उसका दुख सच्चा है; वह भोग रहा है दुख। ( आजकल सोशल मीडिया पर लाइक नहीं मिलना, कम लोगों द्वारा फॉलो करना, कंटेंट का वायरल नहीं होना भी हमारी व्याख्या के कारण भोगे जाने वाले दुख हैं।)
दुख हमारी व्याख्या है। कष्ट बाहर से मिल सकता है। इसलिए कष्ट से तो बुद्ध भी पार नहीं हो सकते। जब तक शरीर है, तब तक कष्ट दिया जा सकता है। लेकिन दुख देने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि कष्ट बाहर ही रह जाएगा। उसकी दुख की भांति व्याख्या नहीं की जाएगी।
तो दो बातें स्मरण रखें। हम दुख जानते हैं, ऐसा मत कहें; हम दुख भोगते हैं। ( दुःख को दुख की तरह जानते ही दुख से मुक्ति हो जाती है) बुद्ध आनंद भोगते हैं। दुख को जो पहचान लेता है वह आनंद के भोग के लिए तैयार हो जाता है। दुख के पूरे यंत्र को जिसने समझ लिया वह दुख के बाहर होना शुरू हो जाता है।
और पूछा है कि हम आनंद की दिशा में क्यों नहीं जाते?
अपनी तरफ से तो हम जाते ही हैं, पहुंचते नहीं। अपनी तरफ से तो प्रत्येक व्यक्ति आनंद की ही तलाश करता है। ऐसा आदमी तो खोजना मुश्किल है जो आनंद की तलाश न करता हो। यह दूसरी बात है कि उसकी तलाश भ्रांत हो; वह जहां खोजता हो वहां आनंद न मिलता हो; वह जिन ढंगों से खोजता हो वे ढंग दुख में ले जाते हों। आनंद को सभी खोजते हैं। उस संबंध में कोई भेद नहीं है बुद्ध में और अबुद्ध में, ज्ञानी में, अज्ञानी में। भेद विधि का है। बुद्ध इस ढंग से खोजते हैं कि पा लेते हैं, और हम इस ढंग से खोजते हैं कि नहीं पाते। ढंग का फर्क है, खोज का कोई फर्क नहीं है। लक्ष्य का कोई फर्क नहीं है। चाहते तो हम भी आनंद ही हैं। लेकिन चाह कर भी दुख पैदा होता है तो जरूर कहीं कोई भूल चाह में हो रही है। इसे दो-तीन हिस्सों में समझ लेना जरूरी है।
पहली बात, जो बहुत महत्वपूर्ण है: हमारा सुख, या जिसे हम आनंद कहते हैं, वह सदा भविष्य में होता है; आने वाले कल में होता है। ध्यान रहे, भूल शुरू हो गई। अस्तित्व अभी और यहीं है, और आपने कल की वासना शुरू कर दी जो कि नहीं है। आप अस्तित्व के बाहर भटक गए। जो भी मिल सकता है वह अभी और यहीं मिल सकता है। कल तो कुछ भी नहीं मिल सकता; क्योंकि कल कभी आता ही नहीं। कल का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह नासमझ आदमी की दौड़ है। नासमझ अपनी वासना के कारण कल को सोचता रहता है।
बुद्ध से उनके एक भिक्षु सारिपुत्त ने पूछा है कि मैं आनंद को कैसे खोजूं?
तो बुद्ध ने कहा, तू खोज छोड़, अभी और यहीं सिर्फ मौजूद रह। खोज की कोई जरूरत नहीं। आनंद यहीं है। तू भागा हुआ है, इसलिए जो यहीं है उससे तेरा मिलन नहीं हो पाता। आनंद कोई वस्तु नहीं है जो भविष्य में मिल जाएगी; वह हमारे जन्म के साथ हमारे हृदय की धड़कन में बसी है। आनंद हमारा स्वभाव है। उसे खोजने की कोई जरूरत ही नहीं है। खोजने की वजह से ही हम उससे चूकते हैं। खोजें मत; उसे अभी इसी क्षण में पकड़ें। उसे कल पर मत टालें।
दुखी आदमी वही आदमी है जो सुख को कल खोजता है, और आनंदित आदमी वही आदमी है जो उसे कल पर नहीं टालता, अभी इसी क्षण में डूबता है। इस डूबने का नाम ध्यान है, समाधि है। तो जब आप इसी क्षण में डूबने की कला सीख जाते हैं तो आपको आनंद का स्रोत उपलब्ध हो जाता है, एक।
दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है कि सुख खोजने वाले लोग सदा दूसरे से सुख पाने की चेष्टा में लगे होते हैं। जैसे कोई और देगा-पत्नी देगी, पति देगा, धन देगा, समाज देगा, बेटा देगा-कोई देगा, कोई और देगा। वहां भूल हो रही है।
आनंद आपके भीतर है; दुनिया में कोई भी उसे आपको दे नहीं सकता। उसे देने का कोई उपाय नहीं है। तो जब तक हम सोचते हैं सुख कोई और देगा तब तक हम दुख पाएंगे। जिस दिन हम इस बात पर आ जाएंगे कि आनंद कोई दे नहीं सकता, आज तक पूरे इतिहास में कभी किसी ने किसी को आनंद नहीं दिया। आनंद तो स्वयं ही पाना होता है। वह स्वयं का स्वयं से संबंध है। वह अंतर्यात्रा है, बहिर्यात्रा नहीं। क्षण में डूबें और अपने में डूबें।
और तीसरी बात, जब भी दुख मिले तब दुख में डूब कर तादात्म्य न कर लें; दुखी न हो जाएं। जब भी दुख मिले तो साक्षी बने रहें और उसे देखें। भोगने की बजाय उसे जानें। उसमें डूबने की बजाय तटस्थ होकर साक्षी बनें, द्रष्टा बनें। दुख का मूल सूत्र है-तादात्म्य, आइडेंटिटी। क्रोध आया, दुख के बादल उठने लगे। आप तत्काल एक हो जाते हैं। आप भूल ही जाते हैं कि मैं कुछ हूं जो क्रोध से अलग हूं। निश्चित ही आप अलग हैं। क्योंकि जब क्रोध नहीं था तब भी आप थे। और थोड़ी देर बाद क्रोध नहीं रह जाएगा तब भी आप होंगे। तो क्रोध एक बादल की तरह आपके आस-पास आया है। लेकिन आपका सूरज उस बादल से एक हो जाने की कोई भी जरूरत नहीं। सूरज को दूर रखा जा सकता है।
इस दूर रखने की कला को हमने साक्षी-भाव कहा है, विटनेसिंग कहा है। तो जब भी दुख पकड़े तब थोड़ा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करें। कठिन होगा प्रारंभ में, क्योंकि जन्मों-जन्मों से हमने एक होकर ही देखने की कोशिश की है। लेकिन जरा सा भी प्रयास करके देखेंगे तो तत्क्षण दूरी हो जाएगी। क्योंकि दूरी है। तादात्म्य झूठ है; दूरी सत्य है। आपके और आपके अनुभवों के बीच एक फासला है। कुछ भी घटता है, वह आपके बाहर घट रहा है। आप चाहें, उससे अपने को जोड़ लें। और जोड़ने की आदत बन गई हो तो तोड़ना मुश्किल भी मालूम पड़े। लेकिन वस्तुतः आप टूटे हुए हैं और अलग हैं। आपका स्वभाव भोगना नहीं है, जानना है। भोगना भूल है; भोगना एक भ्रांति है। जानना सत्य है। जो सत्य है वह सरलता से हो जाएगा। लेकिन पुरानी आदत थोड़ा समय ले सकती है। तो जब भी दुख पकड़े तब शांत बैठ जाएं, आंख बंद कर लें और दुख को दूर से देखने की कोशिश करें, जैसे वह किसी और को घटता हो।( क्योंकि आप सिर्फ़ शरीर नहीं हैं लेकिन अपने को सिर्फ़ शरीर मान बैठे हैं। तो अब यह भी मानना होगा की आप सिर्फ़ शरीर नहीं हैं इससे परे भी हैं, आत्मा भी हैं और वह इस शरीर में दुख घटते हुए देख रहा है।)
इस एक वचन को बहुत गहरे में उतर जाने दें-जैसे वह किसी और को घटता हो। किसी ने गाली दी है और भीतर पीड़ा घूमने लगी है। बैठ जाएं आंख बंद करके और देखें कि जैसे किसी और को घट रहा है; आप दूर हैं। धीरे-धीरे यह दूरी साफ होने लगेगी, धुंधलका अलग हो जाएगा, और स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि दुख घट रहा है और आप देख रहे
जिस क्षण आप देखने वाले हो जाएंगे उसी क्षण से आपका दुख से संबंध टूट गया। द्रष्टा हो जाना दुख से अलग हो जाना है।
ये तीन बातें खयाल में रखें तो बुद्धत्व बहुत दूर नहीं है। बुद्ध होना आपका अधिकार है। आप नहीं होते, यह आपकी मौज है। बुद्ध होना प्रत्येक के लिए सुगम है। नहीं होते, यह आपकी चेष्टा का फल है। आप सब तरह से रोक रहे हैं अपने को। तो ऊपर से तो दिखता है कि आप आनंद की खोज कर रहे हैं, लेकिन जो भी आप कर रहे हैं उससे ही आनंद की हत्या हो रही है। आनंद की खोज का अगर इन तीन सूत्रों के अनुसार चलना हो तो आप शीघ्र ही पाएंगे कि वह किरण उतरनी शुरू हो गई जिसके सहारे मुक्त हुआ जा सकता है, और जिसके सहारे सच्चिदानंद तक पहुंचा जा सकता है।
-ओशो, ताओ उपनिषद #78 मैं अंधेपन का इलाज करता हूं, copyrights Osho international foundation.
मेरे अनुभव से कुछ सुझाव जो आपको होंश या सद्बुद्धि जगाने में मदद कर सकते हैं:-
द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!
.लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। (और देखा देखी में मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति को खो रहा है, जबकि जीवन उस मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति खोजने के लिए ही मिला है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।
लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।
अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो । यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।
किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!
अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।
अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।……तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।
-ओशो ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति copyrights Osho international foundation.
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है, और जिससे लाभ होता दिखे उसका नियमित जीवन में अभ्यास किया जा सकता है। (इसे ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 “मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो” से लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें।))
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on June 26, 2025.