20 जून 1965, सुंदरबाई हॉल, मुंबई में ओशो प्रवचन दे रहे हैं जिसे उनकी किताब अमृत वर्षा के चौथे अध्याय जागरण का आनंद में संकलित किया गया है। यह प्रवचन बहुत महत्वपूर्ण लगा क्योंकि इसमें ओशो कहते हैं जिनको जागना है उनको आधी रात में जागना होगा, सुबह होने का, सवेरा होने का इंतजार नहीं करना है क्योंकि हम सबको पता है कि ‘जब जागे तब सवेरा’। यहाँ ओशो का सवेरा होने से मतलब आत्मज्ञान से हैं। हम इसको अपनी भूल को मानकर आगे वही गलती नहीं करने से समझते आए हैं। वह भी ठीक है लेकिन वह छोटी भूल है और उससे आनंद का कोई संबंध नहीं है।
हर मनुष्य के सामने पूरा जीवन किसी फ़िल्म के ट्रेलर की तरह कुछ क्षणों में दिखाई देता है। और तब उसको आत्मज्ञान होता है और अपनी भूल का एहसास होता है लेकिन उसको ठीक करने का वक्त उसके पास नहीं होता। वही करण है कि वह ईश्वर से निवेदन करता है कि उसे एक मौका और दिया जाय, तब ईश्वर हमको फिर से मनुष्य जीवन प्रदान करने की कृपा हम पर करता है लेकिन इस संसार की पकड़ ऑस्टिन मजबूर है कि व्यक्ति अपना वचन भूल जाता है और फिर से संसार में व्यस्त हो जाता है। लेकिन ईश्वर हमारी इस स्वतंत्रता का पूरा सम्मान करता है और बस किसी प्रेयसी की तरह हमारा इंतजार करता है कि कभी तो उसकी तरफ़ हमारी नज़र उठेगी। इसीलिए चीनी संत लाओ त्ज़ु ने ताओ को स्त्री समान कहा है।
ओशो का कहना है की मौत आने पर यानी उनका कहना है की हम सब यदि आत्मज्ञान की दिशा में कोई प्रयत्न नहीं कर रहे हैं तो हम गहरी नींद में सो रहे हैं और हमारी सुबह अपने आप मौत के समय ही होगी, लेकिन यदि हम सोए इसलिए हैं कि हमको नींद पूरी लेकर जागना तो है ही तो क्यों ना हम आधी रात यानी जब हमारा अहंकार अपने सर्वोच्च शिखर पर हो, तब ही जाग जायें क्योंकि तब जागना आसान है। अहंकार की फ़्यूटिलिटी को उसके शिखर पर ही समझा जा सकता है। और उसको समझने के लिया कुछ सूत्र यहाँ ओशो दे रहे हैं जो अति महत्वपूर्ण हैं। मेरे अनुभव से ओशो बिल्कुल ठीक कर रहे हैं क्योंकि मेरा हुंकार भी अपने शिखर पर ही था जब मैं उसके आवेग के दुष्परिणाम को समझ सका, और आध्यात्मिक यात्रा पर अपने को पूरा झोंकने निकल पड़ा।
चौथा प्रवचन-जागरण का आनंद
मेरे प्रिय आत्मन्!
कल दोपहर को कुछ मित्रों से मैं बात करता था और उनको मैंने एक कहानी कही, और फिर मुझे ख्याल आया कि वह कहानी मैं आपको भी कहूं और उससे अपनी चर्चा को आज प्रारंभ करूं।
एक छोटे से गांव में, रमजान के दिन थे, मुसलमानों की प्रार्थना के दिन थे, आधी रात को एक ढोल पीटने वाले ने एक घर के सामने जाकर ढोल पीटा। वह एक फकीर था। और लोग प्रार्थना के लिए उठ जाएं सुबह-सुबह, इसलिए गांव में जाकर ढोल पीट रहा था। लेकिन ढोल तो सुबह पीटा जाता है। अभी आधी रात थी और उसने एक मकान के सामने जाकर आवाज दी और ढोल पीटा। और मकान में पूरा अंधकार था, उसमें कोई दीया न जलता था, और बाहर कोई रोशनी नहीं आती थी। एक राहगीर ने उससे पूछा कि आधी रात को, अभी तो सुबह नहीं हुई, लोगों को उठाने से क्या प्रयोजन है? और एक ऐसे मकान के सामने जिससे कोई प्रकाश न निकलता हो, जिसमें कोई दीया न जलता हो, जिसमें कोई है भी यह भी पता नहीं, उसके सामने आवाज करने का क्या अर्थ है? क्या तुम्हारा मस्तिष्क ठीक नहीं कि आधी रात को लोगों को जगाए दे रहे हो?
उस फकीर ने कहा कि अगर आपकी बात पूरी हो गई हो तो मैं आपसे दो शब्द कहूं? एक तो मैं आपको यह कहूं, जिन्हें सुबह उठना है उन्हें आधी रात में जाग जाना चाहिए। और सुबह ही हो जाएगी तो फिर मैं जगाऊंगा, जागने में बहुत समय लग जाता है, सुबह बीत जाएगी, इसलिए आधी रात को उठाने आ गया हूं। और जिस घर के भीतर एक भी दीया नहीं जल रहा है उस घर के लोग बहुत गहरे सोए होंगे, बहुत देर उनको उठने में लगेगी, इसलिए आधी रात को उस द्वार पर ढोल पीटता हूं। और जो कान न सुन सकते हों, और जो आंखें न देख सकती हों, और जो लोग सोए हों, अगर हम उन्हें जगाना छोड़ दें और उनके कानों तक आवाजों को पहुंचाना छोड़ दें, तो दुनिया का क्या होगा?
उसने अदभुत बात कही, उसने बड़े अर्थ की बात कही। उसने कहा कि आधी रात को जगाने आ गया हूं ताकि वे प्रभात के पहले जग जाएं। और जिस घर में बिल्कुल अंधकार है उस घर पर ज्यादा मेहनत करूंगा। क्योंकि अंधकार का अर्थ है कि लोग बहुत गहरे सोए होंगे, और उनकी नींद टूट जानी जरूरी है।
मुझे भी अनेक बार लगता है कि मैं कहीं आपको आधी रात में जगाने तो नहीं आ गया हूं। और मुझे भी कई बार लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप बहुत गहरे सोए हों और मैं आपको जगाऊं और आपको तकलीफ और पीड़ा हो। और ऐसा हमेशा हुआ है। जब भी कोई किसी को नींद से जगाता है, तो धन्यवाद देने की बजाय वह गुस्सा और क्रोध से भर जाता है।
हमने क्राइस्ट को सूली दी कि कुछ लोगों को उन्होंने बेवक्त जगा दिया और सुकरात को जहर दे दिया, क्योंकि सोने वाले पसंद नहीं करते कि उनकी नींद टूट जाए। लेकिन जिन्हें जागरण का थोड़ा भी अनुभव होता है, जिन्हें जागरण के आनंद की थोड़ी सी भी ध्वनि मिलती है, उनकी भी एक मजबूरी है, उनकी भी एक विवशता है, वे बिना जगाए नहीं रह सकते।
इसलिए अगर आपकी नींद में मेरी बातों से थोड़ी चोट पहुंचे, और आपको थोड़ा करवट बदलनी पड़े, या आपके भीतर कोई जागरण अनुभव हो, आपके सपने टूट जाएं, तो मुझे क्षमा करना। यह मेरी मजबूरी है कि मैं कुछ आपकी नींद को तोडूं। यह जानते हुए कि नींद टूटना, नींद को तोड़ना दुखद है। लेकिन यह भी जानते हुए कि जिसकी नींद टूट जाती है, वह जब जाग कर देखता है तो उसे पता चलता है कि नींद से बड़ा और कोई दुख न था, नींद से बड़ी और कोई पीड़ा न थी। यह इस कहानी से मैं आज की बात शुरू करना चाहता हूं।
इसलिए यह कहानी मैंने चुनी है–आज करीब-करीब सारी मनुष्यता सोई हुई है। आज करीब-करीब सारी मनुष्यता के भवन में कोई प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। सारे दीये बुझे हुए मालूम पड़ते हैं। और जहां तक मनुष्यता का संबंध है, प्रभात तो आना बहुत दिनों से बंद हो गया, हम आधी रात में बहुत सैकड़ों वर्षों से जी रहे हैं। आधी रात आधी रात ही बनी हुई है, सुबह नहीं आती। और अब तो इतनी घबड़ाहट हो गई है, इतनी पीड़ा हो गई है, और सुबह की आशा भी खोने लगी है और ऐसा लगता है कि कहीं हमें रात में ही समाप्त न हो जाना पड़े। इसलिए इस कहानी को चुना।
मनुष्यता सोई हुई हो, आधी रात हो, और हमारे सब दीये बुझे हों, तो क्या करना होगा? और इसके दुष्परिणाम चारों तरफ दिखाई पड़ने शुरू हुए हैं। इसके सबसे बड़े दुष्परिणाम ये हुए हैं कि हर आदमी इतनी पीड़ा और दुख और संताप से भर गया है कि जीना दूभर मालूम होता है, जीना बहुत कष्टप्रद मालूम होता है, जीना एक बोझ और भार मालूम होता है।
बुद्ध और महावीर ने तो जीवन को आनंद कहा है। उपनिषद के ऋषियों ने चिल्ला कर कहा है कि अमृत और आनंद है यह जीवन। जिन्होंने उस जीवन को जाना है वे तो नाचने लगे हैं, लेकिन हम, हम भी उसी जीवन में खड़े हैं और हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हम उन अंधों की भांति हैं जो प्रकाश में खड़े हों और जिनकी आंखें बंद हैं और जिन्हें प्रकाश का कोई अनुभव नहीं मालूम होता। और हम उन लोगों की भांति हैं जिनके चारों तरफ आनंद बरस रहा हो लेकिन जिनके भीतर कोई रिसेप्टिविटी, कोई ग्राहकता नहीं है। और इसलिए वे आनंद से वंचित रह जाते हैं।
यह जो सारी दुनिया में घटित हुआ है, अगर यह, यह स्थिति नहीं तोड़ी जा सकी, अगर यह दुर्भाग्य नहीं पोंछा जा सका, अगर यह दुर्घटना नहीं मिटाई जा सकी, तो बहुत असंभव नहीं है कि मनुष्य थोड़े दिनों में एक सामूहिक आत्मघात कर ले। एक युनिवर्सल सुसाइड से हम गुजरने के करीब हैं। यह हो सकता है कि बहुत जल्द हम देखें कि हम सारे लोगों ने इकट्ठा अपने को समाप्त कर लिया है। अगर युद्ध हुआ आने वाला तो हम सब अपने को समाप्त कर लेंगे। चारों तरफ दुनिया में कोशिश है कि युद्ध न हो, लेकिन मैं आपसे कहूं, अगर मनुष्य का संबंध आनंद से नहीं होता, तो युद्ध होगा और सारे लोगों को अपने को समाप्त कर लेने की तैयारी करनी होगी। जो सदी इतनी पीड़ित हो, उसका परिणाम सिवाय विनाश के और कुछ भी नहीं हो सकता। जो लोग इतने दुखी हों, उनकी आकांक्षा आतंरिक आकांक्षा मृत्यु के लिए हो जाती है जीवन के लिए नहीं।
दुखी आदमी मरना चाहता है, दुखी सदी भी मरना चाहती है, और वह मरने के उपाय खोजती है अनेक बहानों से। पिछले पचास वर्षों से हम मरने के बहाने खोज रहे हैं। दो महायुद्ध हमने किए इस आशा में कि हम मर जाएंगे। दस करोड़ लोग मरे, लेकिन हम फिर भी बाकी रह गए, मनुष्यता बहुत बड़ी है। अब हम एक तैयारी कर रहे हैं कि एक मनुष्य न बच सके, एक मनुष्य क्या एक जीवन का कोई भी स्पंदन शेष न रह सके। लोग सोचते होंगे युद्धों का कारण आर्थिक है, लोग सोचते होंगे युद्धों का कारण राजनैतिक है; युद्धों का कारण न आर्थिक है, न राजनैतिक है, युद्धों का कारण आध्यात्मिक है।
दुखी जन युद्ध में अपनी राहत खोजते हैं, दुखी जन मरने में अपनी राहत खोजते हैं, दुखी जन किसी भांति मृत्यु की पूजा करने लगते हैं, वे मरने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। केवल आनंदित लोग ही युद्ध के विपरीत और शांति के पक्ष में हो सकते हैं। केवल आनंदित लोग ही अंधकार के विपरीत आलोक के पक्ष में हो सकते हैं। अगर दुनिया को और मनुष्य को विनाश से बचाना हो तो एक-एक मनुष्य के हृदय में आनंद के संगीत की प्रतिध्वनि पहुंचानी होगी।
मेरे देखने में धर्म मनुष्य के भीतर वैसे अंतर्नाद को, वैसी प्रतिध्वनियों को, वैसे प्रेम को, वैसे संगीत को पैदा करने का उपाय और मार्ग है। धर्म को कोई मैं पूजा नहीं मानता हूं, धर्म को कोई अर्चना नहीं मानता हूं, धर्म का कोई संबंध मंदिरों और मस्जिदों से नहीं है, धर्म का संबंध तो मनुष्य के अंतर-हृदय को संगीत में परिणित करने के विज्ञान से है। धर्म का मूल संबंध मनुष्य के हृदय को आनंद के स्पंदनों में उत्तेजित करने से, आरोहण करने से है।
मनुष्य के भीतर बड़ी प्रसुप्त संभावनाएं हैं, बड़े बीज हैं, जो विकसित हो जाएं तो आनंद में फलित हो जाते हैं। मनुष्य के भीतर बड़ी-बड़ी संभावनाएं हैं, जो अगर पूर्ण हो जाएं तो परमात्मा कहीं खोजना नहीं होता वह मनुष्य के भीतर, मनुष्य की कली से ही फूल की तरह प्रकट हो जाता है।
हर मनुष्य के भीतर परमात्मा है। और जो भीतर न हो उसे कभी पाया नहीं जा सकता, जो भीतर छिपा न हो उसे कभी उपलब्ध नहीं किया जा सकता, जिसे हम उपलब्ध करते हैं वह एक अर्थों में हमें पहले से ही उपलब्ध हुआ होता है। जिसे बीज बाद में वृक्ष के रूप में पाता है वह बीज उसे पहले से छिपाए रखता है। बड़े सूक्ष्म, बड़ी सूक्ष्म सत्ता में वह जो वृक्ष है वह बीज में छिपा होता है।
बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट अगर वृक्ष हैं, तो यह सारी मनुष्यता छोटे-छोटे बीज हैं। और इन बीजों में वे पूरी संभावनाएं हैं जो उनमें प्रकट हुई हैं। वह आनंद, वह नृत्य, वह संगीत जो उनमें फलित हुआ, वह आलोक और वह जीवन की कृतार्थता और धन्यता जो उनसे प्रकट हुई, हर आदमी की संभावना और हर आदमी का अधिकार है। और वह मनुष्य जो अपनी ही संभावना की दिशा में प्रयास नहीं कर रहा है वह अपनी मनुष्यता का अपमान कर रहा है। और वह उस, उस वसीयत को, उस अधिकार को जो प्रत्येक को प्रकृति और परमात्मा देता है उसे खो रहा है।
एक ही पाप है, कोई दूसरा पाप नहीं है, एक ही पाप है कि कोई मनुष्य अपने भीतर जो दिव्यता तक उठने की संभावना थी उसके विपरीत चला जाए। एक ही पाप है कि मनुष्य के भीतर जो बीज वृक्ष हो सकता था वह वृक्ष न हो पाए। एक ही पाप है कि मनुष्य जो अपनी आत्यंतिक ऊंचाई को छू सकता था वह उसे बिना छूए रह जाए। और यह पाप किसी और के प्रति नहीं है, यह पाप प्रत्येक मनुष्य अपने ही प्रति करता है। इस जगत में न पाप कोई दूसरे के प्रति है, न पुण्य किसी दूसरे के प्रति है, इस जगत में जो भी मनुष्य करता है वह सब अपने साथ करता है। उसका सारा किया हुआ स्वयं के साथ है और स्वयं के भीतर ही परिवर्तन, स्वयं के भीतर ही विकास या स्वयं के भीतर ही पतन का मार्ग खोल देता है।
सारे स्वर्ग और नरक, सारे पाप और पुण्य, सारी संभावनाएं और सारी वास्तविकताएं मनुष्य के छोटे से अणु में समाविष्ट हैं। उनको कैसे खोला जा सके, उन्हें कैसे विकसित किया जा सके, उन्हें कैसे परिपूर्णता तक ले जाया जा सके–धर्म उसका विज्ञान है। तो जब मैं धर्म की बात करता हूं, तो वे मंदिर आपकी आंखों में न आ जाएं जो चारों तरफ खड़े हैं, वे मस्जिदें आपको न दिखाई पड़ने लगें जो चारों तरफ बनी हुई हैं, और वे घंटियां आपको सुनाई न पड़ें जो पत्थरों की मूर्तियों के सामने बजाई जाती हैं, वे सारी बातों से मेरा धर्म का संबंध नहीं है। उस तरह के तथाकथित झूठे नामों ने, उस तरह की दीवालों और उस तरह के मकानों ने, उस तरह की मूर्तियां और उस तरह के शास्त्रों ने मनुष्य को खंडित किया है, संगीत से नहीं भरा। और उस तरह के धर्म के नाम पर बहुत पाप हैं, उस तरह के धर्म के नाम पर बहुत खून हैं, उस तरह के धर्म के नाम पर मनुष्य के इतिहास में जितनी बुराई हुई है और किसी चीज से नहीं हुई। उस धर्म की मैं बात नहीं कर रहा हूं, मैं तो उस सनातन, उस शाश्वत धर्म की बात कर रहा हूं जिसका बाहर के जगत से कोई संबंध नहीं होता। जिसका संबंध तो भीतर के जगत से है और जिसका संबंध तो भीतर मनुष्य के मन को मंदिर में परिणित करने से है और जिसका संबंध तो मनुष्य के हृदय को ऐसी ग्राहकता, ऐसी सेंसिटिविटी, ऐसी रिसेप्टिविटी, ऐसी ग्रहणशीलता देने से है कि हृदय उन्मुक्त हो जाए और खुल जाए। और जगत में चारों तरफ जो सौंदर्य है, जो सत्य है, वह उसमें प्रतिबिंबित और प्रतिफलित होने लगे। यह कैसे हो सकता है? यह कैसे संभव हो सकता है कि एक मनुष्य दर्पण बन जाए? यह कैसे हो सकता है कि एक मनुष्य इतना ग्राहक बन जाए कि सारे जगत का प्रेम और आनंद उसे अनुभव होने लगे?
हम उसी अनुभूति में, उसी अनुपात में अनुभूति करते हैं जिस अनुपात में हमारी ग्राहकता हो जाती है। जिस आदमी के पास आंख नहीं है उसे प्रकाश का अनुभव नहीं होगा। प्रकाश हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। प्रकाश का होना काफी नहीं है, आंख भी चाहिए। आंख का क्या अर्थ है? आंख का अर्थ हैः हमारे पास ऐसा अंग चाहिए जो प्रकाश की संवेदना को पकड़ सके। सारे जगत में संगीत गूंजता हो, लेकिन किसी के पास कान न हों, तो क्या होगा? संगीत काफी नहीं है, कान चाहिए जो उस संगीत को पकड़ सकें। सारा जगत परमात्मा से भरा है; लेकिन हमारे पास वह आंख चाहिए जो उसे पकड़ सके, वे कान चाहिए जो उसे सुन सकें, वह हृदय चाहिए जो उससे आंदोलित हो सके।
और मनुष्य के भीतर वैसे अंतःकरण का विकास हो सकता है। इसलिए यह न पूछें कि ईश्वर है या नहीं, यह पूछें कि क्या ऐसा अंतःकरण हो सकता है भीतर जो संसार के भीतर कुछ और भी देखने लगे, जो दृश्य के भीतर कुछ और भी अनुभव करने लगे, जो पदार्थ के भीतर और भी सूक्ष्म स्पंदनों को जानने लगे जो कि पदार्थ के नहीं हैं? तो जब मुझसे कोई पूछता हैः ईश्वर है या नहीं? तो मैं उससे पूछता हूं, यह वैसी बात ही है जैसे अंधा पूछे प्रकाश है या नहीं? अंधे को पूछना चाहिए, क्या आंख होती है या नहीं? वे लोग जो पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं, गलत बात पूछते हैं। और फिर उस गलत बात को पूछ कर दो तरह के वर्ग दुनिया में विभाजित हो गए हैं। एक कहता है, ईश्वर है; एक कहता है, ईश्वर नहीं है। ये दोनों नासमझों के वर्ग हैं। क्योंकि ईश्वर… कोई झगड़ा नहीं हो सकता, सवाल तो आंख का है। पूछना चाहिए, आंख है या आंख नहीं है?
आंख नहीं है, तो परमात्मा नहीं होगा। और आंख है, तो परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं रह जाता है। इसलिए विवाद वहां नहीं है, और जो शास्त्र उस पर विवाद करते हैं वे नासमझों ने लिखे होंगे। और जो लोग इस संबंध में विभाजन करते हैं कि हम आस्तिक हैं और नास्तिक हैं, वे अज्ञानियों के वर्ग होंगे। उन्हें कुछ ज्ञान, उन्हें कुछ बोध नहीं है। जिसे बोध है वह यह पूछता नहीं। यह सवाल नहीं है, जिसे बोध है उसे दिखाई पड़ता है। जिसे दिखाई पड़ता है उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है। उसे दिखाई पड़ना शुरू होता है, उसका सारा जीवन परिवर्तित हो जाता है।
कैसे वह अंतःकरण, कैसे वह आंख पैदा हो सके, उस संबंध में मैं थोड़ी सी बातें मैं आपसे आज कहना चाहूंगा।
अगर मनुष्य को अपने को बदलना है, तो कुछ करना होगा। इस जगत में जितने उतार हैं उन उतारों के लिए कुछ भी नहीं करना होता है, उन पर तो कोई लुढ़कता चला जाए तो भी नीचे पहुंच जाएगा। लेकिन जितने चढ़ाव हैं उनके लिए कुछ करना होता है। और बहुत कुछ करना होता है। और सबसे बड़ी बात तो यह करनी होती है कि जितनी ऊंचाइयां छूनी हों, जितनी ऊंचाइयों पर पहुंचना हो, जितने उत्तुंग शिखर पर आरोहण करना हो, उतना ही मनुष्य को अपने भीतर उस ऊंचाई की योग्यता, उस ऊंचाई की पात्रता, उस ऊंचाई पर जीने की क्षमता पैदा करनी होती है, अन्यथा ऊंचाई मृत्यु बन जाएगी।
जो लोग नीचाइयों में जीने के आदी हैं, वे लोग ऊंचाइयों पर अगर ले जाए जाएं, और उनके भीतर पात्रता और क्षमता पैदा न हुई हो, तो ऊंचाइयां उनके लिए मृत्यु हो जाएंगी। जो लोग घने अंधकार में रहने के आदी हों, और जिनकी आंखों ने प्रकाश को कभी न छुआ हो, अगर वे अचानक प्रकाश में ले जाए जाएं, तो उनकी आंखें अंधी हो जाएंगी। जिन लोगों ने कभी कोई ध्वनि न सुनी हो, जिनके कान कभी सक्रिय न हुए हों, अचानक अगर उन्हें संगीत के जगत में ले जाया जाए, वे पागल हो जाएंगे।
ऊंचाइयां छूने के लिए पात्रता और क्षमता विकसित करनी होती है, ऊंचाइयां छूने के लिए नीचाइयों में ही रहते हुए ऊंचाइयों की योग्यता, उन पर जीने की संभावना और क्षमता अर्जित करनी होती है और जिस मात्रा में क्षमता अर्जित होती जाती है उसी मात्रा में व्यक्ति ऊपर चढ़ता चला जाता है।
यह स्मरण रखें, परमात्मा का, या सत्य का, या प्रकाश का मार्ग, आप जितने पात्र होते चले जाते हैं उतनी ही सीढ़ियां अपने आप पार हो जाती हैं, सीढ़ियां पार नहीं करनी होतीं। जिस मात्रा में ऊंचाइयों में रहने में आप समर्थ हो जाते हैं, प्रकृति के नियम उन ऊंचाइयों पर आपको पहुंचा देते हैं। जिस ऊंचाई पर आप रहने में समर्थ हो जाते हैं, प्रकृति के नियम उस ऊंचाई पर आपको पहुंचा देते हैं। अगर पत्थर का बर्फ जमा हो, अगर पानी का बर्फ जमा हो, अगर बर्फ की शिलाएं जमी हों, तो बर्फ बहता नहीं, बर्फ ठोस है। लेकिन अगर सूरज का उत्ताप पड़े और बर्फ पिघल कर पानी हो जाए अगर, तो बर्फ तो नहीं बहता था, लेकिन पानी बहने लगता है। जैसे ही, जैसे ही उत्ताप बर्फ को पानी बना देता है, एक नये नियम की शुरुआत हो जाती है। पानी में बहने की क्षमता आ जाती है। और अगर सूरज का उत्ताप पानी को भाप बना दे; तो पानी तो ऊपर नहीं उठता था, लेकिन भाप ऊपर उठनी शुरू हो जाती है। जैसे ही पानी भाप बनता है, भाप ऊपर उठने लगती है। उसकी गति ऊपर की तरफ शुरू हो जाती है। जिस बात की पात्रता पैदा हो जाए उसी जगत में संचरण शुरू हो जाता है, उसी जगत में प्रवेश शुरू हो जाता है।
धर्म की साधना पात्रता की साधना है। ऊंचाइयों पर अपने को ले जाने योग्य पात्रता पैदा करते ही वे ऊंचाइयां तत्क्षण उपलब्ध हो जाती हैं। उन ऊंचाइयों को पाने के लिए कुछ और नहीं करना होता। जो जितना पात्र है उतना उसे उपलब्ध हो जाता है, यह शाश्वत नियम है। और जो जितना पात्र है उसे मांगना नहीं पड़ता, उतनी पूर्ति उसकी भर दी जाती है।
कैसे हमारे भीतर यह पात्रता उत्पन्न हो सके, उसके कुछ सूत्र आपको मैं समझाना चाहूंगा। पांच सूत्रों की आज मैं बात करना चाहता हूं। पहला सूत्र हैः जो पात्रता उपलब्ध करना चाहता है, उसे श्रमनिष्ठा, उसे आत्मश्रद्धा उत्पन्न करनी होगी। श्रमनिष्ठा और आत्मश्रद्धा का अर्थ मैं आपको समझा दूं। कुछ लोग हैं इस जमीन पर जो सोचते हैं कि परमात्मा किसी के प्रसाद से मिल जाएगा; कुछ लोग हैं जो सोचते हैं परमात्मा किसी के आशीर्वाद से मिल जाएगा, कुछ लोग हैं जो सोचते हैं परमात्मा कोई हमें दे देगा। ऐसे लोग गलत सोचते हैं। ऐसे लोगों के सोचने का पूरा दृष्टिकोण भ्रांत है। ऐसे लोग अपने तमस को, अपने आलस्य को इस सारी बातों में छिपाते हैं। मुझे, मेरे पास, सैकड़ों लोगों से मुझे मिलना होता है, जो यह कहते हैं, हम क्या करें, जो कुछ करेगा परमात्मा कर देगा। जो कहते हैं, हम क्या करें, किसी साधु की, किसी गुरु की कृपा से सब कुछ हो जाएगा। जो कहते हैं, कोई किसी के चरणों में हम समर्पित हो जाएंगे, वह सब कर देगा।
ऐसा संभव नहीं है। जिसको सत्य के जगत में आरोहण करना हो वह मुफ्त में सत्य को नहीं पा सकता। पात्रताएं मुफ्त में नहीं मिलती हैं। क्योंकि पात्रताएं तो आंतरिक परिवर्तन हैं। पात्रताएं कोई वस्तुएं नहीं हैं कि कोई दे दे, क्षमताएं कोई वस्तुएं नहीं हैं कि कोई आपको दान कर दे। क्षमताएं कोई ऐसी चीजें नहीं हैं कि कहीं से आप चुरा लाएं। सत्य की न चोरी होती है, और न सत्य भिक्षा में मिलता है, और न सत्य बाजार में खरीदा जा सकता है, उसके लिए तो स्वयं का, स्वयं का प्रयास, स्वयं का श्रम, और स्वयं पर श्रद्धा रखनी होगी। और बड़ी मजे की बात है, जो लोग स्वयं पर श्रद्धा नहीं कर सकते हैं वे लोग दूसरों पर श्रद्धा करना शुरू कर देते हैं। जो आदमी दूसरों पर श्रद्धा करता है वह किसी न किसी रूप में स्वयं के प्रति अश्रद्धालु है।
तो मैं कहता हूंः किसी पर श्रद्धा मत करना, एक ही श्रद्धा काफी है कि वह स्वयं पर हो। यह आस्था और यह निष्ठा कि मेरे भीतर भी मनुष्यता है, मेरे भीतर भी मनुष्यता का ही स्पंदन है, मेरे हृदय में भी वही धड़कनें हैं जो बुद्ध के, महावीर के, कृष्ण या क्राइस्ट के हृदय में थीं। मेरे प्राणों में भी, मेरे शरीर में भी, मेरे चित्त और मन में भी वे ही स्पंदन, वही सूर्य, वही प्रकाश, वही पृथ्वी मुझे बनाती है जिसने उन्हें बनाया था। वही खून मेरी रगों में बहता है जो उनकी में बहता था। वही आत्मा बीज-रूप में मेरे भीतर है जो उनके भीतर थी। जो उनको संभव हुआ वह मेरे भीतर भी संभव हो सकता है।
बुद्ध के पिछले जन्म की एक कथा है। बुद्ध के पिछले जन्म की एक कथा है–जब वे बुद्ध नहीं हुए थे। उस समय दीपंकर नाम का एक बहुत प्रबुद्ध पुरुष था, बहुत अलौकिक दिव्य ज्योति को उपलब्ध पुरुष था। बुद्ध अपने उस पिछले जन्म में उस दीपंकर बुद्ध के दर्शन करने गए। उस दीपंकर नाम के, उस अलौकिक दिव्य पुरुष के दर्शन को गए। बुद्ध ने जाकर प्रणाम किया दीपंकर को, उनके चरण छूए; दीपंकर ने भी उलटे उनको प्रणाम किया और उनके चरण छूए। वे घबड़ा गए और उन्होंने कहा यह क्या करते हैं आप? मेरा चरण छूना, मेरा प्रणाम करना तो ठीक था, लेकिन आप जैसा भागवत चैतन्य को उपलब्ध व्यक्ति मेरे चरण छूए? यह कैसी मुश्किल कर दी आपने? यह कितना मुझे दिक्कत में डाल दिया? दीपंकर ने कहाः तुम वही देख रहे हो जो तुम हो, मैं वह भी देखता हूं जो तुम हो सकोगे, जो तुम हो सकते हो। मेरे प्रणाम उसके लिए हैं जो कल हो जाएगा। और हर आदमी इस अर्थ में प्रणाम योग्य हो गया। क्योंकि हर आदमी के भीतर वह देखा जा सकता है जो वह हो सकता है। अपने भीतर उस संभावना को स्मरण करने से आत्म-श्रद्धा उत्पन्न होती है। अपने भीतर उस आत्यंतिक ऊंचाई के विचार करने से स्वयं पर विश्वास उत्पन्न होता है। और जिस मनुष्य में दूसरों पर आस्था करने की प्रवृत्ति पैदा कर दी जाए, जिस मनुष्य में दूसरों के चरणों में गिरने की प्रवृत्ति पैदा कर दी जाए, जिस मनुष्य को यह विश्वास दिलाया जाए कि दूसरे तुम्हारे लिए कुछ कर सकेंगे, वह मनुष्य आत्महीन हो जाता है, वह मनुष्य क्रमशः नीचे गिरता जाता है।
मैं किसी के प्रति समर्पण को नहीं कहता हूं। आत्म-समर्पण पर्याप्त है। स्वयं की शरण पकड़ लेना पर्याप्त है। किसी और के चरण पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। और जब भी कोई मनुष्य किसी दूसरे के चरण पकड़ता है तभी वह अपना अपमान कर रहा है, और अपने भीतर बैठे परमात्मा का भी। इसलिए कोई किसी के चरण न पकड़े; स्वयं की शरण पर्याप्त है, आत्म-शरण हो जाना पर्याप्त है। इसे मैं आत्म-निष्ठा और आत्म-श्रद्धा कहता हूं। और जिसे आत्म-निष्ठा और आत्म-श्रद्धा उत्पन्न होगी, वही व्यक्ति श्रम में संलग्न होगा, अन्यथा भीख मांगने की आदत हो जाएगी।
श्रम में कौन संलग्न होगा? और सत्य श्रम से ही मिलेगा। इस जगत में क्षुद्रतम चीजें भी बिना श्रम के उपलब्ध नहीं होती हैं। और क्षुद्रतम चीजों के लिए भी मूल्य चुकाना होता है। सत्य के लिए क्या मूल्य चुकाना होगा? सत्य के लिए सिवाय जीवन के मूल्य के और कोई मार्ग नहीं है। और सब चीजें छोटी पड़ जाती हैं। और कोई चीज सत्य का मूल्य नहीं हो सकती।
श्रम और आत्यंतिक श्रम; और उस सीमा तक मूल्य चुकाने का साहस कि अगर मुझे जीवन भी खोना पड़े तो मैं खो दूंगा।
सुकरात जब मरने लगा और जब उसे जहर दिया जाने को था, तो उसके मित्रों ने कहा कि तुम यह कह दो कि तुम जो कहते थे वह सत्य नहीं है, तो तुम्हारा जीवन बच जाए। सुकरात ने कहाः सत्य को खोकर जीवन बचाना बड़ी चीज खोकर छोटी चीज बचाना हो जाएगा। सुकरात ने कहाः सत्य को खोकर जीवन बचाना बड़ी चीज खोकर छोटी चीज बचाना हो जाएगा। और यह जीवन तो आज नहीं कल छिनने वाला है। जो छिनने वाला है उसे बचा कर उसे खो देना जो कभी नहीं छिनेगा, नासमझी हो जाएगी। तो सुकरात ने कहाः मेरे मित्रो, अगर तुम मुझे प्रेम करते हो, तो मुझे सत्य को बचाने दो और जीवन को जाने दो।
जिसे थोड़ी अंतर्दृष्टि है उसे जानना चाहिए कि जीवन से भी मूल्यवान कुछ और भी है। जिनके लिए जीवन ही अंतिम मूल्य है, वे लोग संसारिक हैं। और जिनकी दृष्टि में जीवन से भी मूल्यवान कुछ है, वे लोग धार्मिक हैं। जिनके लिए जीवन सब कुछ है, वे लोग संसारिक हैं और जिनके लिए जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान कुछ है, वे लोग धार्मिक हैं। ऐसे लोग धार्मिक हैं जिनके पास एक ऐसा बिंदु भी है जिसके लिए वे जीवन को भी खो सकते हैं।
पांच सूफी फकीर हुए, उन पांचों सूफी फकीरों को फांसी दी जाती थी। वे पांचों लाइन से बिठाए गए थे और जल्लाद एक-एक को काट देगा। और लाखों लोग उन्हें देखने इकट्ठे हुए थे। नूरी नाम का फकीर था, वह आगे बैठा था। जल्लाद ने अपनी तलवार उठाई और उसने कहा कि फकीर नूरी उठो और खड़े हो जाओ। वह वृद्ध फकीर था, उसके हाथ-पैर अत्यंत जर्जर हो गए थे, उससे उठने में भी तकलीफ होती थी। वह उठ भी नहीं पाया कि पांचवां जो लड़का बैठा था एक फकीर रक्काम, वह खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं आऊं? जल्लाद ने कहाः युवक पागल हो गए हो, जीवन कोई ऐसी चीज नहीं कि इतने जल्दी खोने को कोई उत्सुक हो? और तलवार कोई ऐसी चीज नहीं कि उसका स्वागत किया जाए? अभी तुम्हारी बारी नहीं आई, अभी मैं दूसरे को बुलाता हूं। रक्काम ने कहाः मौत जब आनी ही है, तो हर क्षण बारी है। रक्काम ने कहाः जब मौत आनी ही है, तो हर क्षण बारी है। और जब किसी भी आदमी का नाम बुलाया जाता है, तो मुझे लगता है, मेरा नाम बुला लिया गया है। और उसने कहा कि यह अच्छा ही होगा कि मैं आ जाऊं और नूरी बाद में मरे, रक्काम पहले मर जाए।
वह जल्लाद बोलाः कैसे पागल हो! किसी दूसरे की मौत अपने ऊपर लेना कैसा पागलपन है?
उस रक्काम ने कहाः प्रेम इसी पागलपन का नाम है।
जीवन का बहुत मूल्य है; लेकिन प्रेम का उससे भी ज्यादा मूल्य है। और जो लोग प्रेम को नहीं समझ पाते, वे ही केवल जीवन से अटके रह जाते हैं। और जो प्रेम को समझ लेते हैं, वे जीवन से मुक्त हो जाते हैं। और जो आदमी जीवन से मुक्त हो जाता है वह आदमी मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
स्मरण रखें, जो आदमी जीवन से मुक्त हो जाता है वह आदमी मृत्यु से मुक्त हो जाता है। मृत्यु केवल उनके लिए है जो जीवन से बंधे हैं। तो जीवन के ऊपर एक ऐसा बिंदु खोज लेना मृत्यु से मुक्त हो जाने का मार्ग है। अमृत उन्हें उपलब्ध होगा जो जीवन के ऊपर कुछ खोज लेते हैं। जो जीवन को भी किसी चीज पर समर्पित और देने को राजी हो जाते हैं, उस चीज का नाम सत्य है, या कोई चाहे तो कहे उस चीज का नाम प्रेम है, या कोई और कोई नाम देना चाहे तो कहे कि उस चीज का नाम परमात्मा है।
परमात्मा उस सत्ता का, उस सत्य का नाम है जिसके लिए जीवन समर्पित किया जा सकता है। जिससे जीवन कम मूल्य का पड़ जाता है। सत्य के लिए श्रम और सत्य के लिए जीवन का समर्पण जिसके हृदय में बोध हो, इस भांति का उत्पन्न होता है वही व्यक्ति साधना की पहली सीढ़ी पर पैर रख पाता है। इससे सस्ते में नहीं चलेगा। और इससे सस्ते में जो कहता हो और इससे ज्यादा शार्टकट और छोटे रास्ते जो बताता हो, वह झूठी बातें कह रहा है, और आपके आलस्य का शोषण कर रहा है। आपके आलस्य का बहुत शोषण हुआ है सारी जमीन पर। कोई कहता है, थोड़ी माला जपो; कोई कहता है, थोड़ा दान करो; कोई कहता है, थोड़ा रोज मंदिर जाओ; कोई कहता है, रोज सुबह किसी शास्त्र का पाठ कर लो, सब ठीक हो जाएगा। कोई कहता है, इतना भी करने की जरूरत नहीं, भगवान का नाम रटते रहो, तो सब ठीक हो जाएगा।
ये बिल्कुल झूठी बातें हैं। किसी नाम के रटने से कुछ भी नहीं होगा। और भगवान इतना नासमझ नहीं कि आपके नाम रटने से बहकाया जा सके। और भगवान इतना नासमझ नहीं कि आपकी स्तुतियां उसे खुश कर सकें और उसके दंभ को प्रभावित कर सकें, उसके पास कोई दंभ नहीं है। उसके पास कोई दंभ नहीं है।
एक फकीर था, एक साधु था। उसने अपने एक युवक को जो उसके पास साधना करने आया, उससे पूछा कि तुम क्या करते हो? वह बोला, मैं सुबह से शाम तक भगवान का नाम लेता हूं। वह फकीर बोला कि मेरे पास रुक जाओ और सुबह से सांझ तक मेरा नाम लो, मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूंगा। मैं इतना घबड़ा जाऊंगा तुमसे, मैं इतना परेशान हो जाऊंगा कि जिसका कोई हिसाब नहीं। प्रसन्न तो मैं कैसे होऊंगा उससे? नाम लेने से कोई कैसे प्रसन्न हो जाएगा? और प्रसन्नता क्या कोई इतनी सस्ती बात है? और परमात्मा क्या प्रसन्न और अप्रसन्न होता है? और क्या आपको पता है उसका कोई नाम है? परमात्मा का कोई नाम नहीं। और जो सोचता हो कि यह परमात्मा का नाम है, वह किसी मनुष्य-कल्पित नाम को ले रहा होगा। और परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं; कोई सोचता हो कि मैं उसका ध्यान कर रहा हूं; तो वह किसी आदमी की बनाई हुई ईजाद का ध्यान कर रहा होगा। सारी मूर्तियां आदमियों की बनाई हुईं और आदमी की शक्लों में हैं। सारे नाम आदमियों को दिए गए और आदमियों के द्वारा दिए गए हैं। न परमात्मा का कोई नाम है, न उसकी कोई मूर्ति है, न उसकी कोई प्रतिमा है।
इसलिए कोई सस्ता उपाय मत खोजना। माला फेर लेने से और गुरिए सरका लेने से और नाम रट लेने से कोई सत्य उपलब्ध नहीं होता। सत्य बहुत मंहगी बात है। इतना आसान नहीं। और स्मरण रखें कि इन चीजों को मैं जो कह रहा हूं गलत हैं। इसलिए कह रहा हूं कि परमात्मा का मूल्य मेरे मन में बहुत ज्यादा है। इतना सस्ता नहीं खरीदा जा सकता, इसलिए इनको गलत कह रहा हूं।
परमात्मा को खरीदने का एक ही रास्ता हैः जो अपने को मूल्य में देने के लिए राजी हो जाए। जो स्वयं को देने को राजी होता है वह सत्य को पाने का अधिकारी हो जाता है। एक ही विनिमय है, एक ही रास्ता और एक ही उपाय हैः श्रम और स्वयं का परिपूर्ण देने का साहस। यह पहली शर्त है। इस शर्त को जो राजी हो जाता है उसके भीतर अदम्य संकल्प का जन्म होता है। जो इस बात के लिए राजी हो जाता है, जो इतनी हिम्मत करता है, जो इतना साहस करता है उसके भीतर बड़ी ऊर्जा, बड़ी शक्ति उत्पन्न होती है। उसके कण-कण जाग जाते हैं, उसके हृदय की सारी सोई शक्तियां परिपूर्ण रूप से संलग्न, इकट्ठी, एकजुट हो जाती हैं और वह अपने भीतर एक ऊर्जा के आरोहण को अनुभव करता है।
दूसरी बात है, सत्य की खोज में, सत्य की तलाश मेंः श्रम, आत्म-श्रद्धा, संकल्प का आरोहण।
इनके साथ दूसरी शर्त हैः अमूर्च्छित जीवन-व्यवहार।
धर्म कोई टेक्नालॉजी नहीं है कि हमने कोई मंत्र पढ़ा और काम हो गया। हमने बटन दबाई और पंखे चलने लगे। धर्म कोई टेक्नालॉजी नहीं है। कोई धर्म यंत्र नहीं है कि कहीं दबाया और काम शुरू हो गया। धर्म तो समग्र जीवन-परिवर्तन है। उसमें कोई एक बिंदु नहीं छूना, उसमें तो पूरे जीवन को ही छूना पड़ेगा। और धर्म तो पूरे जीवन को बदलने की बात है। इसलिए कोई सोचता हो कि आधा घड़ी दस-पांच मिनट किसी कोने में बैठ कर हमने भगवान का, भगवान के लिए समय दिया तो काम हो गया, तो गलती में है। जो भगवान को पाना चाहता है उसकी प्रार्थना, उसकी आराधना, उसका कीर्तन, उसका ध्यान, वह जो भी नाम देता हो सतत हो जाएगा, वह चौबीस घंटे का हिस्सा हो जाएगा।
धर्म की साधना खंडित साधना नहीं है–अखंड साधना है। उसे तो सोते से जागते तक, जागते से सोते तक करना होगा। वह कोई ऐसी बात नहीं है कि उससे छुट्टी हो सके। मैं आपको कहूं, धर्म से कोई छुट्टी नहीं होती। एक चोर छुट्टी मना सकता है, दो दिन चोरी न करे, लेकिन एक धार्मिक आदमी छुट्टी नहीं मना सकता है कि दो दिन धार्मिक न रहे। धर्म से कोई छुट्टी नहीं है। साधु के लिए कोई छुट्टी नहीं है कि वह तेईस घंटे साधु रहे और एक घंटा छुट्टी मना ले। एक घंटा छुट्टी मना ले, तेईस घंटे खराब हो जाएंगे। एक क्षण को भी छुट्टी नहीं मनाई जा सकती, धर्म के जगत में कोई अवकाश, कोई छुट्टी नहीं होती। सतत और अखंड, सतत और अखंड, सुबह से सांझ, सांझ से सुबह एक-एक श्वास में उसको साधना होगा।
इसलिए दूसरा तथ्यः अमूर्च्छित जीवन-व्यवहार (या होंश पूर्वक जीवन जीना)। जीवन में मूर्च्छा न हो, जीवन के व्यवहार में मूर्च्छा न हो; हम कोई काम सोए-सोए न करें, हर काम में जागरण हो।
एक फकीर एक गांव से निकला, कुछ लोगों ने उसका अपमान किया और गालियां दीं। जब वे गालियां दे चुके, उस फकीर ने कहा कि मैं कल आऊंगा और इनके उत्तर दे दूंगा। वे लोग बोले, पागल हुए हो, गालियों के उत्तर तत्क्षण दिए जाते हैं। वह आदमी बोला, ऐसी हमारी आदत नहीं, जब तक कुछ बात को ठीक से सोच न लें, समझ न लें, तब तक उत्तर नहीं देते। चौबीस घंटे बाद आऊंगा और उत्तर दूंगा।
और क्या आपको पता है कोई चौबीस घंटे बाद गालियों का उत्तर दे सकता है? ऐसा समर्थ आदमी आज तक नहीं हुआ जो चौबीस घंटे बाद गालियों का उत्तर दे सके। चौबीस घंटे में वह इतना सजग हो जाएगा कि उसके भीतर से गालियां निकलनी मुश्किल हैं। लेकिन जो सजगता को और गहरा करते हैं उन्हें उसी क्षण भी गालियां निकलनी असंभव हो जाती हैं। जितनी सजगता गहरी होती है, जितना होश जाग्रत होता है, जितना विवेक प्रतिष्ठित होता है उतना ही, उतना ही उनके जीवन से जो गलत है वह होना असंभव हो जाता है। होश को क्रमशः अपने प्रत्येक जीवन-व्यवहार में विकसित करने की जरूरत है।
एक दिन एक आदमी बुद्ध से मिलने आया, वह बैठा था उनके सामने और पैर का अंगूठा हिलाता था। उस आदमी ने पूछा कि मैं पूछने आया हूंः सत्य क्या है? बुद्ध ने कहाः इसे बाद में पूछेंगे। क्या मैं यह पूछूं कि तुम्हारा पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? वह बहुत हैरान हो गया होगा। इतने बड़े मनीषी के पास सत्य को पूछने गया है, और वे वह भी कौन सी क्षुद्र बात की बातें कर रहे हैं कि तुम्हारे पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है? उसने कहा, इसे छोड़िए, इससे क्या मतलब? बुद्ध ने कहाः इससे बहुत मतलब है। जिसे अपने अंगूठे हिलने के भी कारण का पता नहीं, वह सत्य की खोज कैसे करेगा? जिसने अभी क्षुद्र को नहीं सम्हाला, वह विराट को कैसे सम्हाल सकेगा? बुद्ध ने कहाः मेरे कहते ही, पूछते ही तुम्हारा अंगूठा बंद भी हो गया। यह क्यों हुआ? तो बंद कर लिया उसने। उस आदमी ने कहाः मुझे कुछ पता ही नहीं था कि अंगूठा हिल रहा है। बुद्ध ने कहाः तुम्हारा शरीर है और तुम्हें पता नहीं कि हिलता है? तुम खतरनाक आदमी हो, तुम किसी की जान भी ले सकते हो और कह सकते हो कि मुझे पता नहीं कि मेरा हाथ उसके सिर पर कैसे पड़ गया। और तुम्हारा जीवन पाप से भरा हो जाएगा, क्योंकि तुम्हें यह भी पता नहीं होगा कि कोई विचार क्यों चलता है, कोई वासना क्यों उठती है, तुम्हारा सारा जीवन यांत्रिक है। इसको मैं कहता हूं–मूर्च्छा।
ऐसा व्यक्ति जिसका शरीर, जिसका चित्त, जिसका विचार अकारण और मूर्च्छित चल रहा हो, ऐसा व्यक्ति धर्म के जगत में विकास नहीं कर सकता है। वहां तो बड़ी पवित्रता और बड़ी निर्दोषता होगी, बड़ी सरलता होगी तब गति होगी। वह सरलता, वह निर्दोषता अमूर्च्छित जीवन से आनी शुरू होती है। वह होशपूर्वक जीवन जीने से शुरू होती है। एक-एक बात को, एक-एक विचार को, वाणी को, आचरण को स्मरणपूर्वक देखना होगा, वह क्यों हो रहा है? और आप हैरान हो जाएंगे। अगर आप अपने भीतर यह विचार सजग कर लें कि मेरे भीतर कोई बात क्यों हो रही है तो आप बहुत हैरान होंगे।
अगर यह सजगता गहरी है, तो जो-जो गलत है, वह होना बंद हो जाएगा। क्यों? क्योंकि गलत के होने के लिए मूर्च्छा चाहिए। और इसीलिए जो लोग ज्यादा गलतियां करना चाहते हैं, उनके लिए मादक द्रव्य हैं; और मूर्च्छित हो जाएं तो और ज्यादा गलतियां करना उनको आसान हो जाता है। एक शराबी जो गलतियां कर सकता है वह बिना शराब पीए नहीं कर सकता। एक क्रोधी जो गलतियां कर सकता है वह बिना क्रोध में नहीं कर सकता। क्रोध भी नशा है। क्रोध की स्थिति में सारे शरीर में मादक द्रव्य छूट जाते हैं, मादक रस छूट जाते हैं और मन विशाक्त और मूर्च्छित हो जाता है। वैसे ही कोई ऊपर से मादक द्रव्य ले ले, इंटाक्सिकेंट ले ले, तो फिर वह ज्यादा गलतियां कर सकता है।
अगर पाप करने हों, तो नशा बहुत जरूरी है। और अगर धर्म में उठना हो, तो सब नशे छोड़ देने की आवश्यकता है। कुछ नशे हैं जो हम बाहर से लेते हैं, कुछ नशे हैं जो हमारे भीतर होते हैं। उन दोनों को क्रमशः क्षीण करने से, सजगता को जगाने से व्यक्ति में अमूर्च्छा पैदा होती है। उस अमूर्च्छा को महावीर ने विवेक कहा, बुद्ध ने अप्रमत्तता कहा, क्राइस्ट ने अवेयरनेस कहा, या किसी और ने कुछ और कहा होगा। ऐसा होश, तो जीवन में भूल होनी मुश्किल हो जाती है।
जनक के समय में ऐसी बात हुई, एक युवक ने अपने गुरु को पूछा कि मैं अब सत्य की अंतिम खोज करना चाहता हूं, तो कहां जाऊं? उसके गुरु ने कहाः हमारे राज्य का जो राजा है, उसके पास चले जाओ। वह युवक बोलाः राजा के पास, किसी साधु के पास भेजते तो समझ में भी आता। लेकिन गुरु ने कहा है, तो वह गया। जब वह गया और राजमहल में पहुंचा, तो उसने देखा, वहां संध्या को बड़ा आयोजन था और बड़ी वेश्याओं के नृत्य चलते थे, बड़ी सुरा ढाली जाती थी और जनक उनके बीच बैठा था। वह युवक सोचाः यह क्या पाप में मैं आ गया और यहां कैसे ब्रह्मज्ञान और सत्य का पता चलेगा? लेकिन भेजा था गुरु ने, तो खड़ा रहा। जब सारा समारोह समाप्त हुआ तो राजा की यह स्थिति देख कर उसका मन नमस्कार करने को भी नहीं हुआ, वह खड़ा ही रहा; खुद जनक ने नमस्कार किया और कहा, युवक कैसे आए हो? उस युवक ने कहाः आया तो था किसी ख्याल से, लेकिन अब तो कहना भी गलत है। जो देखा आंख से अब आपसे यह कहना कि मैं सत्य खोजने आया था आपके पास, बड़ा, बड़ा भद्दा मालूम होता है। मेरी हिम्मत भी नहीं पड़ती, विचार भी नहीं उठता।
जनक ने कहाः अब आ ही गए हो तो रात कम से कम ठहर जाओ, सुबह वापस लौट जाना। ठीक ही है, यहां कहां सत्य मिलेगा? रात हो गई थी, वह युवक ठहर गया। उसे अच्छे भोजन कराए गए, उसे बिस्तर पर लिटाया गया। लेकिन जब जनक उसे बिस्तर पर छोड़ कर गया, तो वह देख कर हैरान हो गया। जिस बिस्तर पर वह सोया है, छत से दो नंगी तलवारें बिल्कुल कच्चे धागे से लटकी हुई हैं। वह नीचे बिस्तर पर है ऊपर वे नंगी तलवारें कच्चे धागे से लटकी हुई हैं। इतनी ऊंची हैं कि उनको निकाल कर भी नहीं रख सकता। और उसी बिस्तर पर उसे सोना है, कमरे में और कोई जगह भी नहीं। जनक बाहर से दरवाजा बंद कर गया है। अब बड़ी मुसीबत हो गई। वह करवट भी नहीं लेता, पड़ा है चुपचाप, देख रहा है कि वे कब गिर जाएं, जरा हवा का झोंका आ जाए तो तलवार नीचे गिर जाएं। रात भर आंख नहीं झपीं, रात भर सजग पड़ा रहा कि कहीं तलवार न गिर जाएं।
सुबह जनक आया और उसने कहाः रात नींद तो ठीक आई? कोई बिस्तर में असुविधा तो नहीं हुई? कक्ष ने कोई दिक्कत तो नहीं दी? कोई तकलीफ तो नहीं थी? वह युवक बोलाः कुछ पता नहीं कक्ष कैसा था, बिस्तर कैसा था, और नींद आई ही नहीं, इसलिए नींद आई कि नहीं यह सवाल नहीं। जनक ने पूछाः क्या हुआ? उसने कहाः ये दो नंगी तलवारें रात भर सजग किए रहीं, होश बना रहा भीतर कि अगर जरा सोया तो मृत्यु निकट है। जनक ने कहाः रात जब वह नृत्य में मैं बैठा था और जब वेश्याएं नाचती थीं, तब तलवारें मेरे ऊपर लटकी थीं। वे तलवारें तुम्हें दिखाई नहीं देतीं, अभी युवक हो, अभी वृद्ध की आंखें नहीं मिलीं। जैसे-जैसे वृद्ध होने लगा हूं वैसे-वैसे तलवारें हर वक्त लटकी रहेंगी, और धागा बहुत कच्चा है, इतना कच्चा है कि आज तक हमेशा ही टूटता रहा है और हर आदमी पर आखिर में टूट ही जाता है। तो इसलिए नाच देखता था लेकिन नाच में था नहीं। जैसे रात तुम सोए थे लेकिन सोए नहीं थे। जनक ने कहाः ऐसी सजगता चौबीस घंटे बनी रहे। ऐसी सजगता का नाम अमूर्च्छित जीवन-व्यवहार है। ऐसा सजग व्यक्ति कुछ भी गलत नहीं कर सकेगा, ऐसा सजग व्यक्ति कुछ भी–जिसको हम पाप कहें, जिसको हम बुरा कहें–ऐसा उससे असंभव हो जाएगा। अमूर्च्छित आचरण ही जीवन में धर्म को प्रतिष्ठा देता है और गति देता है। यह दूसरा तत्व है।
पहला तत्व हुआः श्रमनिष्ठा, स्वयंनिष्ठा, आत्म-श्रद्धा।
दूसरा तत्व हुआः अमूर्च्छित जीवन-आचरण, सजगता, अप्रमत्तता, विवेक।
ये दोनों तत्व बड़े मूल्य के हैं। इन दोनों का संयुक्त प्रयोग हो, तो जीवन का परिवर्तन सुनिश्चित है। तीसरा तत्व हैः सतत श्वास-श्वास में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम की ओर उन्मुखता। हमारी जिस तरफ दिशा होती चित्त की क्रमशः हमारा चित्त उसी दिशा में गति कर जाता है। जिस बात को हम निरंतर-निरंतर विचारते हैं, जिस बात की निरंतर ऊहा चलती है, जिस बात का निरंतर प्राणों पर आघात होता है, उस तरफ हमारी दिशा हो जाती है, हम उस तरफ प्रवाहित होने लगते हैं। अगर दृष्टि सत्य पर, शिव पर और सुंदर पर बनी रहे, अगर चौबीस घंटे इसका स्मरण हो कि कुछ भी असत्य, कुछ भी असुंदर, कुछ भी अशिव हमसे न हो, इसका बोध रहे, तो जीवन के परिवर्तन में भूमिका निर्मित होने लगती है, हमारी आंख फिर जाती हैं।
सूरज तो बहुत दूर है, और सूरज पर अभी पहुंच जाना संभव नहीं, लेकिन हम सूरज के साथ दो काम कर सकते हैं। एक काम तो है कि सूरज की तरफ आंखें करके खड़े हों, और एक काम है कि पीठ करके खड़े हो जाएं। दोनों स्थितियों में सूरज उतने ही दूर रहेगा। अगर हम नापें, अगर हम नापें, अगर हम भूगोल के विज्ञाता से पूछें, अगर हम वैज्ञानिक से पूछें, गणितज्ञ से पूछें, तो वह कहेगाः सूरज की तरफ पीठ करो या मुंह करो, सूरज की दूरी आपसे बराबर एक सी रहेगी, कोई फर्क नहीं है। विज्ञान की दृष्टि में कोई फर्क नहीं है; धर्म की दृष्टि में फर्क है, फासला बहुत ज्यादा है। जो आदमी पीठ किए है वह सूरज से बहुत ज्यादा दूर है। और जो आदमी उसी जगह पर खड़ा है और सूरज की तरफ मुंह किए है, वह सूरज के बहुत करीब है। गणित के हिसाब से कोई फासला नहीं, धर्म के लिहाज से बहुत फासला है क्योंकि जो पीठ किए है वह आज नहीं कल दूर होता चला जाएगा और जो मुंह किए है वह आज नहीं कल पास होता चला जाएगा।
असल में उन्मुख हो जाना ही निकट हो जाना है। अगर पूरी उन्मुखता हो तो निकटता फलित हो जाती है। जिस तरफ आंखें उठ जाएं उस तरफ गति शुरू हो जाती है। और जो फूलों का स्मरण करता है जाने-अनजाने सुवास और सुगंध उसके जीवन में व्याप्त होने लगती है। हम जिस बात का चिंतन करते हैं, जिस बात का मनन करते हैं, जिस बात पर हमारी दृष्टि लगी रहती है, जिसका हमें ध्यान बना रहता है क्रमशः, क्रमशः हमारे जीवन को वह परिवर्तन, वह ऊर्ध्वीकरण, वह विकास, वह आरोहण देने लगता है। जो जैसा अनुभव करता रहता है चौबीस घंटे वह वैसा ही एक दिन बन जाता है। इसलिए कोई पाप का स्मरण न करें, पाप का स्मरण घातक है। कोई हीनता का स्मरण न करें, हीनता का स्मरण घातक है। कोई नीचाइयों का चिंतन न करें, वैसा चिंतन बहुत, बहुत जीवन को नीचे ले जाने, उतारने और पतन करने में सहयोगी है। जो उद्दात है, जो श्रेष्ठ है, जो सूर्य की तरफ भास्वर है, जो दूर आलोक को दे रहा है, उस पर दृष्टि बनी रहे। सत्य पर, शिव पर, सुंदर पर दृष्टि बनी रहे तो जीवन में क्रमशः उनके प्रति ग्रहणशीलता पैदा होती है और गति उपलब्ध होती है।
चौथा तत्व हैः सोते-जागते, उठते-बैठते, जैसा मैंने कहा, सत्य, शिव, सुंदर का स्मरण बना रहे। वे दूर हैं, लक्ष्य हैं, उन्हें पाना है, उन तक पहुंचना है। वैसे ही दूसरा सूत्र है। चौथा सूत्रः सत्-चित्त्-आनंद का बोध बना रहे। मैं सत्-चित्त्-आनंद का हिस्सा हूं; मैं सच्चिदानंद हूं, इसका बोध बना रहे। एक है लक्ष्य, वह दूर है, उसे पाना है। एक है भाव, उसे निरंतर धीरे-धीरे पिरोना है और अपने भीतर प्रवेश देना है। जैसे-जैसे जो-जो व्यक्ति जो-जो बात निरंतर-निरंतर भीतर पिरोता है, उतनी उसमें गति करती जाती है, उतनी डैप्थ में, उतनी गहराई में उतरती जाती है। हमारे चिंतन बड़े अजीब हैं, हम चौबीस घंटे असत का चिंतन करते हैं, दुख का चिंतन करते हैं, अचित का चिंतन करते हैं। हमारा चौबीस घंटे चिंतन सच्चिदानंद के विपरीत है। हमारा मनन उसके विपरीत है, हमारी सारी चित्त-दशा उसके विपरीत है। और इसलिए परमात्मा की तरफ हमारे पैर नहीं बढ़ पाते।
सोचना और जानना है निरंतर। क्राइस्ट ने कहा हैः दि किंगडम ऑफ दि गॉड इ.ज विदिन यू। कहा कि तुम्हारे भीतर है परमात्मा का राज्य। उपनिषदों ने कहाः तत्त्वमसि, वह तुम्हारे भीतर है ब्रह्म। वह बुद्ध कहते हैंः वह तुम्हारे भीतर। महावीर कहते हैंः तुम्हारे भीतर। किसलिए? इसलिए कि अगर यह बोध, अगर यह ख्याल, अगर यह भाव-दशा अनुभव में प्रविष्ट हो जाए। अगर कोई व्यक्ति चलते और उठते अनुभव करने लगे, अगर उसे यह ख्याल रहने लगे–जब वह चले तो वह जाने कि परमात्मा चल रहा है, जब वह बोले तो जाने कि परमात्मा बोल रहा है, जब वह कोई कार्य करे तो जाने कि परमात्मा कर रहा है, तो क्या होगा, तो क्रांति घटित हो जाएगी। तब वह ऐसी बात नहीं बोल सकेगा जो कि परमात्मा के लिए नहीं बोलनी चाहिए। तब उससे ऐसे काम बंद होने लगेंगे जो कि परमात्मा से नहीं होने चाहिए।
मैंने सुना है, एक चोर था एक नगर में। बड़ा चोर था, बड़ी उसकी ख्याति थी चोरी में। वह एक दफा एक साधु के दर्शन को गया। उसने देखा, साधु के पास लोग बहुत रुपये भेंट कर जाते हैं। सांझ तक देखता रहा बैठ कर। अनेक लोग आए, अनेक बहुमूल्य चीजें भेंट कर गए। उसने सोचाः यह बड़ा पागलपन है, हम चोरी करते हैं, रात-दिन श्रम करते हैं, ऐसा श्रम करते हैं जिसको कोई आदर नहीं देता, खतरा हमेशा पकड़े जाने का, इससे तो साधु बन जाना बेहतर है। यहां लोग धन लाते हैं, वहां हमें लेने जाने पड़ता है। लोग भी कैसे पागल हैं। हम लेने जाते हैं तो उपद्रव करते हैं, यहां खुद ही दे जाते हैं। उसने कहा, धन ही चाहना है तो चोर से साधु बन जाना बेहतर है। उसने साधु के सारे ढंग देखे, उसने सब देख लिया दो-चार दिन में हिसाब कि साधु के ढंग क्या हैं, कैसे वस्त्र पहनता, कैसे धूनी लगाता, कैसा क्या करता है, वह सब उसने देखा और वहां से राजधानी चला गया। उसने कहा, छोटे गांव में क्या बैठना, जब साधु ही बनना है तो राजधानी में बन जाएंगे। इसलिए इस वक्त भी हमारे मुल्क के सारे साधुओं का रुख राजधानी की तरफ है, सारे साधु राजधानी की तरफ जाते हैं। छोटे गांव में क्या साधु बनना, उसने सोचा। वह राजधानी में जाकर बैठ गया। और वह तो सब देख कर आया था। उतना अच्छा साधु भी नहीं कर सकता, वह सब सीख कर आया था। उसका काम तो बहुत ही व्यवस्थित था। उसमें तो भूल-चूक खोजनी कठिन थी। सब गणित से हिसाब लगाया था। होशियार तो आदमी था ही, चोरी में निष्णात था, साधुता में भी निष्णात हो गया। लोग, बड़े-बड़े लोग आने लगे। अदभुत था। उसने देख लिया, साधु, रुपया आता है लात मार देता है। साधु लात नहीं मारता था, वह उठा कर आग में डालने लगा। लोगों ने कहाः अदभुत त्यागी है। पैसे की तरफ आंख फेर लेता था। जितनी आंख फेरने लगा, उतना रुपया आने लगा; जितना लात मारने लगा, उतनी धन-संपत्ति दौड़ने लगे। जितना लोगों से कहने लगा, मेरे पैर मत छूओ, उतने लोग पैरों पर गिरने लगे। सारी राजधानी चकित। और साधु की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी।
पहले ही दिन जब उसकी प्रतिष्ठा का पूरा का पूरा प्रभाव फैला और हजारों-लाखों रुपये उसके चरणों में चढ़े। रात वह सोचने लगा, इन्हें लेकर भाग जाऊं; लेकिन उसे ख्याल आया, लेकिन उसे ख्याल आया, एक नकली साधु को इतना मिलता है, तो असली को कितना मिलता होगा? दूसरे दिन सुबह उसने सच में ही रुपये आग में डाल दिए। दूसरे दिन सुबह उसने सच में ही रुपये आग में डाल दिए। नकली ही सब किया था। लेकिन ख्याल यह आया कि नकली को इतना मिल सकता है, तो असली को कितना मिलता होगा? एक दिशा में झूठा ही उन्मुख हुआ था। पवित्रता की दिशा में झूठा ही उन्मुख हुआ था। लेकिन आंख उस तरफ गई, तो पवित्रता ने पकड़ लिया। साधुता पर भाव गया, तो साधुता ने पकड़ लिया। असाधुता बड़ी कमजोर है, पाप बहुत कमजोर है, असत्य बहुत कमजोर है। आंख भर चली जाए सत्य की तरफ, प्रभु की तरफ, तो पकड़ लेता है। बड़ा ग्रेवीटेशन है वहां। ग्रेवीटेशन का, गुरुत्वाकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र है वहां। एक दफा आंख भी चली जाए–तो चौबीस घंटे जिसे परमात्मा को साधना है उसे अनुभव करना चाहिए मैं सत्य का अंश हूं, उसे अनुभव करना चाहिए मैं परम चैतन्य का हिस्सा हूं, उसे अनुभव करना चाहिए मैं परम आनंद में प्रतिष्ठित हूं। इस भांति उसकी धारा प्रवाहित होगी। धीरे-धीरे परिवर्तन के झोंके आने शुरू होंगे। धीरे-धीरे उसकी आंख मुड़ेगी। और एक जन्म में नहीं, अगर अनेक जन्मों में भी आंख मुड़ जाए, तब भी जल्दी मुड़ गई ऐसा समझना।
ये चार सूत्र साधने के हैं और पांचवां सूत्र प्रतीक्षा करने का है। धर्म के जगत में अधैर्य नहीं चलता। जो लोग अधैर्य से काम करेंगे वे कभी प्रभु को नहीं पा सकते। वहां तो अनंत धैर्य चाहिए। अनंत को जब पाना है तो अनंत धैर्य की भूमिका होनी चाहिए। तो जो व्यक्ति सत्य को साधने चला हो उसे अनंत प्रतीक्षा करनी चाहिए।
एक महिला मेरे पास आती थीं, उन्होंने मुझसे कहा, मुझे भगवान के दर्शन करने हैं। मैंने कहाः आपकी बात कुछ ऐसी लगती है कि बहुत जल्दी करने होंगे। वह बोली, मैं जितनी जल्दी हो सके, करना चाहती हूं। मैंने कहाः जितनी जल्दी भगवान का दर्शन हो जाए भगवान में उतना ही कम अर्थ मालूम होगा। और अगर एकदम अभी हो जाए, तो शायद विश्वास भी नहीं आएगा कि जिसके दर्शन हुए वह भगवान है। क्योंकि उस पर तो विश्वास उतनी ही गहरी प्रतीक्षा से आएगा, जितना शुद्ध जल पाना हो उतना गहरा खोदना होगा। जितनी बहुमूल्य बात पानी हो उतनी प्रतीक्षा करनी होगी। मौसम के फूल के पौधे बोते हैं, जल्दी निकल आते हैं, जल्दी मर भी जाते हैं। बड़े वृक्ष बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, बड़ी मुश्किल से बड़े होते हैं, फिर उतना टिकते हैं।
परमात्मा में जिसकी प्रतिष्ठा होनी है उसे तो परम धैर्य से प्रतीक्षा करनी होगी। जो अधैर्य करेगा, वह नहीं जा सकता। तो मैंने उन महिला को कहा, इतने अधैर्य से मत पूछो, प्रयास करो और प्रतीक्षा करो। उन्होंने दो-चार दिन मैंने जो कहा किया। वह तीसरे दिन मेरे पास आई, बोली, अभी तक कोई दर्शन नहीं हुआ, अभी कुछ दिखाई नहीं पड़ता। मैंने उनसे कहाः बहुत मुश्किल है। आपको कुछ भी होना मुश्किल है। इतने अधैर्य से जो झपटना चाहता है वह नहीं पा सकेगा। परमात्मा को झपटा नहीं जा सकता, केवल ग्रहणशीलता भर होती है। जैसे सुबह सूरज निकलता है तो हम अपने द्वार खोल देते हैं, सूरज को खींच कर कैसे भीतर लाएंगे? द्वार खोल सकते हैं, जब सूरज निकलेगा तो प्रकाश भीतर आएगा।
परमात्मा का आना प्रकाश की भांति है और हमारी साधना द्वार खोलने की भांति है। उसे खींच के गठरियों में बांध कर लाया नहीं जा सकता कि हम बाहर जाएं और प्रकाश को गठरियों में बांधें और भीतर ले आएं। ऐसा कोई रास्ता नहीं है। तो जो चाहता है कि तीव्रता से हो जाए, अभी हो जाए, इसी क्षण हो जाए, वह परमात्मा को समझ नहीं रहा। केवल द्वार खोला जा सकता है। और द्वार खोलने का क्या अर्थ है? जितनी गहरी प्रतीक्षा उतना द्वार खुला हुआ, जितना अधैर्य उतना द्वार बंद। जितना धैर्य उतना द्वार खुला, अगर अनंत धैर्य हो तो पूरा मकान द्वार हो जाता है, दीवालें सब गिर जाती हैं और तब प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा को पूरा कर दूंगा। एक बहुत पुराने समय में एक बड़ी झूठी कहानी है। नारद एक गांव से निकले, एक फकीर था, वह वहां माला जपता था। वृद्ध था, सौ वर्ष उसकी उम्र थी। उसने नारद को कहा कि मैं सुनता हूंः तुम निरंतर भगवान से साक्षात्कार के लिए जाते हो, जरा उनसे पूछना कि मेरी मुक्ति में कितनी देर और है? नारद ने कहाः जरूर पूछ लूंगा। जब इतनी उत्सुकता है मुक्ति के लिए तो जरूर पूछ लूंगा। उन्होंने भगवान से पूछा या नहीं; लेकिन लौटे तो उन्होंने उस फकीर को कहा कि मैंने पूछा था, वे बोले कि अभी तीन जन्म और लग जाएंगे। उस फकीर ने माला नीचे पटक दी, उसने कहा कि क्या अन्याय हो रहा है? इतने दिन से हम प्रार्थना और पूजा कर रहे हैं और अभी तीन जन्म और लग जाएंगे? और मुझसे पीछे जो आए वे आगे निकल गए। यह निपट अन्याय है मेरे ऊपर। नारद ने कहाः बड़ी मुश्किल, हम क्या करें। क्योंकि जो मुक्ति को इतने जोर से मांग रहा है वह मुक्ति से ही बंध जाता है। मुक्ति ही उसका बंधन हो जाती है, वह मुक्त कैसे होगा? क्योंकि इतने जोर से मांगना ही तो बंधन है। न मांगना मुक्ति है। चेष्टा हो और मांग न हो, तो परमात्मा इसी क्षण उपलब्ध है। श्रम हो और आकांक्षा न हो, तो परमात्मा इसी क्षण उपलब्ध है।
और नारद ने कहाः एक घटना आप ही जैसी और घटी है। जब मैं आपके पास से गया था, तो पास में ही एक युवा संन्यासी था, वह नाच रहा था वीणा को लेकर, उसी दिन दीक्षित हुआ था। मैंने उससे पूछाः तुम्हें भी पूछना है परमात्मा से कि कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला नहीं, हंसने लगा। मेरे प्रश्न पर हंसने लगा, कुछ बोला नहीं। लेकिन मैंने उसके लिए भी पूछा। और जब मैं लौट कर उसके पास गया और मैंने कहा, मित्र, बड़ी मुश्किल है; मैं डर गया क्योंकि जब आप तीन जन्म में माला नीचे पटक दिए, तो वह क्या करेगा पता नहीं, क्योंकि परमात्मा ने जो कहा वह बहुत लंबी बात थी। वह युवक बोलाः क्या बोले वे? तो मैंने उससे कहाः तुम जिस वृक्ष के नीचे नाचते हो, उसमें जितने पत्ते हैं, भगवान ने कहा, उतने ही जन्म और लग जाएंगे अभी मुक्ति में। वह युवक वापस नाचने लगा और उसने कहाः तब तो पा ही लिया, जमीन पर कितने पत्ते हैं, इतने थोड़े से पत्ते! तब तो पा ही लिया। इतने ही जन्म! तब तो पा लिया। जमीन पर कितने पत्ते हैं! और कितने अनंत जन्म हो सकते हैं! और वीणा उसकी वहीं गिर गई और वह उसी क्षण मुक्ति को उपलब्ध हो गया। उसी क्षण!
यह भाव-दशा, यह अनंत प्रतीक्षा का बोध उसी क्षण साधना को परिपूर्णता पर पहुंचा देता है।
तो मैंने चार सूत्र कहे साधने की दृष्टि से। एक सूत्र कहा भूमिका की दृष्टि से। अगर इन पांच सूत्रों पर जीवन निर्धारित हो, अगर इन पांच सूत्रों पर जीवन को निर्मित किया जाए, तो कोई भी वजह नहीं है कि कोई भी मनुष्य आनंद को, परम सत्य को, अमृत को जानने से वंचित रहे। सबका अधिकार है, सबको मिल सकता है। लेकिन जो अपने अधिकार के लिए चेष्टा नहीं करेंगे वे अपने अभाग्य के स्वयं ही जिम्मेवार हैं, कोई दूसरा नहीं।
-ओशो, अमृत वर्षा, #4 जागरण का आनंद,
ओशो कहते हैं:- अप्रमत्तता या जागरण का या द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!
लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। (और देखा देखी में मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति को खो रहा है, जबकि जीवन उस मृत्यु के पार जा सके ऐसी संपत्ति खोजने के लिए ही मिला है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।
लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।
जागरण की, विवेक की, अप्रमत्तता की या अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।
किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!
अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।
अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।
तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।
–ओशो ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकता है, और जिससे लाभ होता दिखे उसका नियमित जीवन में अभ्यास किया जा सकता है। (इसे ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 “मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो” से लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें।))
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।